Wednesday, 3 January 2018

बुद्ध ने क्यां देखा जो बुद्ध हो गए.



एक बुढा व्यक्ति
एक रोगी
एक अर्थी
एक सन्यासी

बस इतने में ही वैराग्य उत्पन्न हो गया. वैराग्य भी इतना strong की राजपाट, अपनी पत्नी और छोटे से बच्चे को भी छोड़ कर चल दिए सत्य की खोज में. महात्मा बुद्धा जिनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था, पिता का नाम राजा शुद्धोधन माता का नाम महारानी महामाया था. उनका विवाह यशोधरा नामक युवती से हुआ. पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ।

राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। ऋतुओं के अनुकूल  तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं।

लेकिन विवाह के बाद उनका मन वैराग्य में चला और सम्यक सुख-शांति के लिए उन्होंने अपने परिवार का त्याग कर दिया। कौन वैराग्य में गया "उनका मन"

यानि जब वो एक दिन सैर पर निकले तो चार दृश्य जो हम लगभग रोज़ देख लेते है, उन चार दृश्यों ने उनका जीवन पलट कर रख दिया. उन चार दृश्यों में तीन तो हम सबके साथ घटित होने ही है, नहीं तो एक तो होना ही है - अर्थी. हम सबको मालूम है कि हमने एक न एक दिन इस शरीर को छोड़ना है और शरीर से पुरे संसार की हर चीज को भी छोड़ देना है. फिर भी हम सब इसके पीछे भाग रहे है. क्यूंकि हम वो नहीं है जो हम सोच रहे है. संसार की हर वस्तु नाशवान है और हमारा शरीर भी. पर मन, हमारा मन कमाल की चीज है जो हमें इस कटु सत्य को समझने ही नहीं देता है. लेकिनं यह सत्य भी वास्तव में कटु नहीं है मीठा है, पर वैसा मीठा नहीं जैसा हम समझते है. इन्द्रियों, मन और सांसारिक आकर्षणों से उत्पन्न हुए यांत्रिक सुख हमें इस कदर दबाये हुए है कि हम इन सब के पीछे छिपे ही चलाने वाले को देख ही नहीं प् रहे है.

आखिर कोई तो सिस्टम होगा जो हमें साँसे दे रहा होगा, कोई तो होगा जिसने हमें बनाया, यह सब कुछ बनाया, और चला भी रहा है. आखिर कोई तो होगा जिसने हमें इस नाशवान संसार में डाला. क्यों डाला, क्या करवाना चाहता है हमें पैदा करने वाला, क्यों हम है , क्यूँ वो है, क्यों कोई अमीर है, क्यूँ कोई रोगी है, क्यूँ कोई गरीब है, क्यों है यह सब - कोई तो है इसके पीछे - है कोई शक्ति जो दिखती नहीं है.  दिखेगी भी नहीं तब तक नहीं दिखेगी जब तक बुद्ध की दृष्टि से उन चारो घटनाओ को देख न ले  जो बुद्धा ने उस समय देखी थी. आसान नहीं है, मन को तोड़ कर उसे ढूढ़ लेना आसान काम नहीं है. आसान होता तो हर कोई बुद्ध होता, मैं भी. 


सब कुछ तो नाशवान है, decay हो रहा है समय के साथ साथ. यहाँ तक कि समय भी भरोसेमंद नहीं है. मैंने समय पर एक विडियो बने है ज्सिमे मैंने बताया है की समय भी सत्य नहीं है. वो हमें चलाने वाला समय से भी परे है. समय से मन, मन से हमें और इस संसार को गढ़ता हुआ एक यात्रिक सिस्टम ही चल रहा है. रुकने का नाम नहीं ले रहा और पता नहीं कब तक चलेगा. विज्ञानं भी कहता है कि जैसे हमारा लोक है ऐसे कई सारे लोक और भी हो सकते है.

क्यों न समझना शुरू करे अपने आप को, अपने होने को, अपनी चेतना को, उस एक सत्य को पाने की चेष्टा करे, जो शाश्वत हो.  एक बार अगर बुद्ध की दृष्टि से देख लिया तो काम बन जायेगा. खुद ब खुद ही बन जायेगा. संसार में संसार की वस्तुओं से साथ जीना बुरी बात नहीं है पर उनसे बांध जाना बुरी बात है. बंध गए तो बंध गए. मुस्किल नहीं है बस देखना भर ही है की यह हो क्या रहा है. एक बार अगर जानने की कौशिश की तो बताने वाला, जनाने वाला खुद-ब-खुद चला आएगा. यह भी बात एक दम सत्य है. परखी हुई है.

यात्रा का मतलब भोगना नहीं हो सकता. क्यूंकि भोगने वाला शरीर और वस्तुये सब का सब नाशवान है. यात्रा का मतलब एक ही हो सकता है जानना. स्वयं को जानना, उसको जानना. अगर जान लिया तो बुद्ध हो जायेंगे. जब जानने की यात्रा शुरू करेंगे न तब भी जीवन में रोमांच भरना शुरू हो जायेगा. मज़ा आने लगेगा जीवन जीने में फिर आने वाले कल से डर नही लगेगा बल्कि उत्सुकता होगी उसे देखने की बस. क्यूंकि संसार के पीछे की सच्चाई और उसे चलाने वाले के पीछे की सच्चाई जानने का रास्ता तो आनंद से भरा हुआ है.
एक बार शुरुआत करनी है. फिर चलना है बस फिर आनंद ही आनंद.. सांसारिक वस्तुओ में आनंद होता तो गौतम बुद्ध राज कुमार थे, राजा के बेटे थे.

तो बुध ने जो देखा बस उस दृष्टि से यदि एक बार भी वो देख लिया तो बस फिर यात्रा अपने आप चलने लगेगी.