Saturday, 7 March 2020

क्या होता है जब कोई ऋषि समाधि में जाता है?


क्या होता है जब कोई ऋषि समाधि में जाता है


समाधि शब्द आपने कई बार सुना होगा. हम सुनते आये है प्राचीन ऋषि समाधि अवस्था में चले जाते थे. आज भी उच्च कोटि के साधक समाधिस्थ हो जाते है. आज हम आसान भाषा में यह समझेगे कि यह समाधि वास्तव में है क्या?

समाधि ध्यान के बाद की अवस्था है और ध्यान एक घटना है. जोकि एक तरह से मन के हटने के बाद घटित होती है. ध्यान से पहले प्रत्याहार होता है. प्रत्याहार को हमें समझना होगा. हम लगातार अपनी चेतना को अपनी पांच इन्दिर्यों के माध्यम से खोते चले जा रहे है. हमारा माइंड ही एक तरह का पदार्थ है जो हमारी चेतना को संसार में उलझाये रखने में सक्षम है. हमारा मन हमें हमारी चेतना को नहीं समझने देता. हमारा मन हमें कुछ क्षणों के लिए भी नहीं ठहरने देता जिस से कि हम खुद के होने को समझ सके. यानि हम चेतन और अचेतन में फर्क समझ सके.



इसलिए खुद को समझने की प्रक्रिया में अगर कोई हमारा शत्रु है तो वो हमारा मन ही है. इसलिए साधना में हमारी पहली लड़ाई हमारे खुद के मन से ही होती है. ध्यान से पहले हमें अपने मन को अपनी पाच इन्दिर्यों से अलग करना होता है. मन को अपनी इन्द्रियों से हटाना ही प्रत्याहार है.

लेकिन इसके लिए सबसे पहले हमें अपने मन को शुद्ध करना होता है. मन को शुद्ध करने का मतलब होता है कि मन को कामना रहित करना. मन तब तक अशुद्ध होता है जब तक उसमे कामनाएं होती है. शुद्ध मन से ही ध्यान की और बढ़ा जा सकता है. अशुद्ध मन हमें हमेशा संसार को और ही बनाये रखता है. अगर हमारी सोच केवल संसार है तो समझ लीजिये कि हमारा मन अशुद्ध है.

समाधि में मन नहीं होता. इसलिए सही मायने में हम समाधि को शब्दों में बयां नहीं कर सकते. समाधि अपने ही मन के परे की एक स्थिति है.   



प्रत्याहार के बाद एक ही विचार की धारणा की जाती है. एक ही विचार जब लम्बे समय तक चलता है तो एक समय ऐसा आता है जब ध्यान घटता है. ध्यान में समय का आभास भी नहीं रहता. कब ध्यान करने बैठे और कब तक वो ध्यान चला इस बात का पता ही नहीं चल पाता. ध्यान जब लम्बे समय तक घटने लगता है तो साधक समाधि में जाने लगता है. समाधि की भी कई अवस्थाएं होती है. समाधि में शुरू के मन से परे के आभास होते है. परन्तु वो आभास साधक मन से जुड़ कर ही सोचने लगता है. फिर साधक खुद के होने के अनुभव को पाने लगता है. जब खुद केहोने के अनुभव को पा लेता है तो उसे खुद को कैसे छोड़ना है यह बात समझ आ जाती है.

इस तरह से एक आवरण से दुसरे आवरण को तोड़ता हुआ साधक परम विराम पर पंहुच जाता है जोकि समाधि की अंतिम अवस्था है. जिसे हम निर्वाण कह सकते है, मुक्ति कह सकते है.

Friday, 6 March 2020

साधना में भगवान् को कैसे महसूस करे


साधना में भगवान् को कैसे महसूस करे



भगवान् कोई व्यक्ति नहीं है जिन्हें हम देख कर या उनकी कोई तस्वीर देख कर उन्हें याद कर सके. तो फिर साधना में, ध्यान में कैसे ईश्वर की अनुभूति करे. यह एक बड़ी समस्या है. एक तरह से यह एक रिसर्च का विषय है. विज्ञानं में जब किसी चीज की खोज करनी होती है. उसे सबसे पहले एक अज्ञान वैल्यू मन जाता है. उसके बाद उसे बाद उसे Mathematically prove किया जाता है.



वेदान्त भी हमें इसी तरह से करने के लिए कहता है कि पहले ईश्वर को कुछ मान लो. ईश्वर के असली रूप का चिंतन नहीं किया जा सकता. सच्चाई यह है कि हम अपने मन से “उसे” न तो सोच सकते है और न ही अनुभव कर सकते है. हमारा मन pictures की भाषा समझता है. इसलिए हमें अपने मन के अनुसार ही चलना होगा. हमें इस बात को समझना होगा कि हम मन रूपी आवरण के अंदर है. क्यूंकि हम अपने ही मन के अंदर है और हमारा मन प्रकृति के अंदर है और प्रकृति ईश्वर के अंदर है इसलिए हमें शुरुआत में अपने ही मन को पार करने के लिए अपने मन को साधना होगा.

(Whatsaap +91 93 158 35440)


उपनिषद हमारी इस मामले में बहुत मदद करते है - ब्रह्माबिंदु उपनिषद हमें सीधेतौर पर हमें बताता है कि - प्रथम स्वर में मन को लगा कर फिर अस्वर की धारणा करनी चाहिए. इसका आसान शब्दों में मतलब है कि पहले हम सगुण रूप को धारण करते हुए फिर हमें निर्गुण की धरना करनी चाहिए.



एक शब्द यहाँ आया है - धारणा. इसे समझने के लिए पतंजलि के अष्टांग योग को समझना होगा. क्यूंकि उसके बिना हम न तो ध्यान को समझ पायेगे और न ही साधना को.

पतंजलि योग सूत्र के 8 अंग

1   
  1. यम
  2. नियम
  3. आसन
  4. प्राणयाम
  5. प्रत्याहार
  6. धारणा
  7. ध्यान
  8. समाधि



यहाँ धारणा आती है प्रत्याहार के बाद. प्रत्याहार में हम अपने मन को अपनी इन्द्रियों से निकल चुके होते है. उसके बाद एक ही विचार पर मन को टिकाया जाता है. केवल और केवल एक ही विचार को ही लम्बे समय तक चिंतन किया जाता है.

यह एक खास नियम है कि एक ही विचार मन में लम्बे समय तक रखा जाये तो मन एक समय बाद निरुस्त हो जाता है और यह वो समय होता है जब हम ध्यान में प्रविष्ट होते है. सब कुछ टेक्निकल है.



लेकिन शुरुआत जैसे कि मने बताया कि सगुण से ही होनी चाहिए. लेकिन सगुण में भी अटक नहीं जाना है. क्यूंकि सगुण उपासना एक तकनीक है उसे प्रयोग करके आगे का रास्ता तय करना होता है.

आप अपने धर्मानुसार किसी देवता या ईश्वर के किसी भी रूप को जेहन के रखते हुए ध्यान कर सकते है. यह एक सगुण उपासना होगी.

Wednesday, 4 March 2020

मनुष्य का मन


मनुष्य का मन



मन ही हर समस्या का मूल है और मन ही हर सफलता के पीछे की ताक़त भी है. ब्रह्मबिन्दु उपनिषद के अनुसार मनुष्य का मन दो प्रकार का होता है. शुद्ध मन और अशुद्ध मन. अशुद्ध मन वो होता है जिसमें बहुत सारी कामनाएं एक साथ चलती रहती है. शुद्ध मन वो होता है जो कामनारहित होता है. जिस मन में किसी प्रकार की कोई भी ईच्छा नहीं होती केवल वही मन शुद्ध होता है.



ब्रह्मबिन्दु उपनिषद आगे कहता है कि अशुद्ध मन इस संसार में बंधन का कारण होता है और शुद्ध मन मुक्ति का कारण होता है. इस संसार में सुख पूर्वक जीवन बिताने के लिए शुद्ध मन की जरुरत होती है. जन्म मरण के बंधन से मुक्त करने के लिए शुद्ध मन की ही जरुरत होती है.

वेदांत कहता है कि मुक्ति की ईच्छा वाले मनुष्य को सबसे पहले चाहिए कि वो अपने मन को शुद्ध करे. मन को शुद्ध करना का साधारण सा तरीका ब्रह्मबिन्दु उपनिषद में यह बताया है कि मन को कामनारहित किया जाये. हालाँकि यह जितना आसान लगता है उतना आसान है नहीं. परन्तु मन को शुद्ध करने का एकमात्र तरीका है एक ही.




मन को शुद्ध करने की प्रक्रिया में मन का निरोध करना होता है. मन को हर संभव तरीके से रोकना होता है. उसके लिए वेदांत में पतंजलि योग सूत्र में तरह तरह के साधन दिए है. योग आसन, प्राणायाम, ध्यान, मन्त्र साधना और अन्य कई प्रकार की साधनाएं विभिन्न धर्मो के धर्म ग्रंथो में दी गयी है.



 ब्रह्मबिन्दु उपनिषद कहता है कि जब तक मन का नाश न हो जाये तब तक मन का निरोध करते रहना चाहिए. श्रीमद्भगवद्गीता में भगवन श्री कृष्ण भी यही सलाह देते है.

Tuesday, 3 March 2020

गीता में श्री कृष्ण ने दिया है सफलता का एक सूत्र

श्रीमद्भगवद्गीता ऊपरी तौर पर युद्ध की एक कहानी लगती है. लेकिन वास्तव में यह हमारे मन की कहानी है. हर किसी के मन की कहानी. चाहे व्यक्ति किसी भी धर्म का हो किसी भी सम्प्रदाए का हो भगवद्गीता हर मन का सटीक बैठती है. धर्म से परे का ग्रन्थ है भगवद्गीता. 


भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे है. अर्जुन ही हम सबका मन है. हम सबके मनों का प्रितिनिधित्व है अर्जुन.
सफलता का एक खास राज़. यह बड़ा ही असाधारण है. इसमें आपको दिन में कुछ समय दुसरो के लिए निकालना होता है. 

इसमें बिना कुछ सोचे केवल योग्य व्यक्ति की मदद करनी होती है. श्री कृष्ण कहते है कि ऐसा करने से न केवल आपका यह जीवन सुधरेगा बल्कि परलोक भी सुधरेगा. 



दिन में कम से कम एक व्यक्ति की या कम से कम एक मदद प्रकृति की अवश्य करनी है. मदद करने के बहुत सारे तरीके है. मदद केवल धन से नहीं बल्कि किसी के चेहरे पर मुस्कान लाकर भी की जा सकती है. किसी को अच्छी सलाह देकर भी की जा सकती है.

प्रकृति हम सब की माता है. प्रकृति की मदद करने से हर किसी की मदद होने लगती है. श्री कृष्ण बताते है कि जो इस प्रकृति की मदद करेगा प्रकृति उसकी मदद करना शुरू कर देगी. 



यह एक नियम है. एक शाश्वत नियम. भगवन श्री कृष्ण अर्जुन को ऐसा करने के लिए कहते है. ताकि अर्जुन मन रूपी युद्ध को जीत सके और अपने अस्ल्ली स्वरुप को पहचान ले.