Tuesday, 27 February 2018

मन – एक अति रहस्यमयी शक्ति


मन – एक अति रहस्यमयी शक्ति



रहस्य भी कई प्रकार के होते है कुछ सामान्य श्रेणी के होते है और कुछ बेहद खास. जीवन और हमारा होना अपने आप में एक बहुत खास  रहस्य है. पर आज मैं आपको कही ओर ही ले जाने के मूड में हूँ. रहस्यमयी मन के द्वारा, आपके, मेरे मन में उठते हुए विचारों की मदद से, इन विचारों का अवलोकन करते करते, इन्हें देखते देखते मुझे कुछ खास बाते जानने को मिली जो मैं आपके साथ भी शेयर करना चाहता हूँ. ताकि इन खास बातो को मैं आप सबके मनों से भी समझ सकूँ और हम और आगे बढ़ सके.

मैंने पिछले कुछ समय से मन पर काफी काम किया है. मैंने वेदांत कि नज़र से मन को जानने कि कौशिश की है. कुछ मॉडर्न साइकोलॉजी से समझा है, कुछ  फिलोसोफी से समझा है, खुद भी काफी एक्सपेरिमेंट्स किये है. तो मैंने जो समझा है वो मैं आपको बताना चाहता हूँ. खासतौर पर मन के बारे में.

बात शुरू करता हूँ वेदान्त से, उपनिषद से, क्यूंकि भारतीय अध्यात्मिक वैज्ञानिकों ने, हमारे ऋषियों ने इस पर बहुत काम किया है. क्यूंकि योग में हम सबसे पहले मन को ही साधते है.

एक विषय आता है मन पर जिसका मैंने पहले भी अपने विडियो में जिक्र किया है. वो है चितविक्षेप.

एक विडियो मैंने बनाने था जिसका विषय था तीन समस्याएँ, तीन समाधान और तीन तरीके. जिसमे तीन समस्याएँ थी

चितमल: (Impurity of Mind)
चितविक्षेप (Scattering of Mind)
अज्ञानता (Ignorance)

इनमे से पहली दो प्रोब्लेम्स पर मैं आपसे चर्चा करना चाहता हूँ. Impurity of Mind और Scattering of Mind पर. और मेरे लिए जो खास बात है  वो दूसरी वाली समस्या है यानि - चितविक्षेप (Scattering of Mind)
Impurity of Mind मन की वो अवस्था होती है जिसमे मन किसी भी बाहरी विचार को अपने अन्दर आने ही नहीं देता और जिसे हम कर्मयोग और त्राटक, प्राणयाम से ठीक करते है.

दूसरी समस्या, चितविक्षेप (Scattering of Mind) है. इसमें क्या होता है कि मन टिकता नहीं है, एक विषय से दुसरे विषय पर Scattering होती रहती है मन की. इसे drifting भी कहते है. यानि कि किसी भी सोच पर टिक ही नहीं पाना. चितविक्षेप से क्या होता है कि हम जिस विषय पर टिकना चाहते है उस विषय से बार बार फिसल जाते है. कही के कही भटक जाते है. यानि हम चले तो कही ओर से होते है और पहुच कही के कही जाते है. ऐसे ही हम चलते आ रहे होगे कही से और पता नहीं हमारा मन drift होता होता कहा से कहा पहुच भी गया होगा और आज जो हमारा जीवन है तब शायद यह हमारा लक्ष्य न भी हो जब हम चले हो. 

क्यूंकि मन drift हो हो कर भी हर समय अपना वजूद बनाये रखता है और हर समय हमें उस वक़्त चल रही Thoughts की favor में भी बनाये रखता है. यहाँ तक कि हमारी बुद्धि भी मन में उपलब्ध डाटाबेस के आधार पर ही सोचती है. आज जो हमारा लक्ष्य है वो कल नहीं था, जो कल था वो परसों नहीं रहा होगा इस तरीके से चलते चले तो हम mind की drifting की वजह से अपने होने का असली उदेश्य तो भूल ही चुके होंगे शायद. कोई तो वो विचार होगा जिसके कारण हमारा जन्म हुआ होगा या शरीर होने के इस सिस्टम में हम पड़े होंगे शायद. पर हमारे मन ने drift हो हो कर हमें कही का कही पंहुचा दिया होगा. एक विचित्र तरह की उदासी कही एक उदेश्यहीन जीवन की देन तो नहीं है? 

ऐसे ही सभ्यताएं की सभ्यताएं चली जा रही होगीं हमारे मन के द्वारा एक अंतहीन यात्रा पर. क्यूंकि मन की drifting का कोई भी फिक्स रूल या नियम तो होता नहीं है. जो drifting होती है वो मन कि कंडीशनिंग पर ही होती है. यानि drifting भी मन कि और कंडीशनिंग भी मन की. अपने लक्ष्य से जितना दूर व्यक्ति चला जाता है तो उदासी, नकरात्मक विचार उसे घेर लेते है. इसीलिए ही आज समाज में तनाव है, नकारात्मक विचार हर किसी के मन में घर बनाये हुए है. क्यूंकि खुद के लक्ष्य भूल चुके है हम drift होते होते. आज जो विचार हमारे लक्ष्य है उन विचारो से वो शायद हमारा कभी कोई वास्ता रहा ही न हो.    

अगर ऐसा है तो फिर करे क्यां? यह सबसे बड़ा प्रश्न हमारे सामने उभर कर सामने आता है. कैसे जाने अपनी यात्रा को,कैसे जाने उस विचार को जो हमारा होगा और जिससे हमारा अपना वास्ता होगा. जिसे अपनाने से हमें सकून मिलेगा. कैसे हम अनचाहे विचारों को हटा दे और उस विचार को पा ले जो हमारा अपना होगा.
उतर एक ही है चित की विपेक्षता हटानी होगी, यह मन जो बार बार भाग जाता है उसे रोकना होगा.      


Sunday, 25 February 2018

परमात्मा क्यां है?


What is God?

कहा से शुरू करू यह अनमोल बात? चलिए भगवद्गीता से शुरू करता हूँ. अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच में सवांद, भगवद्गीता. जहा अर्जुन ने को श्रीकृष्ण को जब अपना वास्तविक रूप दिखाने की बात कही तो उन्होंने कहा की तुम इस तरह से नहीं देख पाओगे उसके लिए मुझे तुम्हे अलग अलौकिक आँखे देनी पड़ेगी तब तुम समझ पाओगे कि मैं क्यां हूँ. इसलिए एक बात निश्चित है कि आप इस तरह से नहीं जान सकते इस शरीर में उपलब्ध समझ के बल से.
थोडा और आगे चलते है.

श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 24 – जिसका हिंदी में आशय है कि –
बुद्धिमान पुरुष मेरे अनुमत अविनाशी परम भाव न जानते हुए मन इन्द्रियों से परे मुझ सचिच्दानंद परमात्मा को मनुष्य की भांति जन्मकर व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते है.

फिर श्लोक 25 –
अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अथार्थ जन्मने मरने वाला समझता है.

दो बाते मैंने बताई है एक तो लौकिक आँखों द्वारा नहीं जान सकते. केवल लौकिक आँखों द्वारा ही नहीं बल्कि अन्य किसी भी इंद्री के द्वारा नहीं जान सकते. मन के द्वारा भी नहीं जान सकते.

दुसरे हमें अपनी सोच से परमात्मा को व्यक्तिभाव से अलग करना होगा. श्रीमद्भागवद्गीता का दसवाँ अध्याय विभुतोयोग कहा गया है. जिसमे परमात्मा की विभूतियों के बारे में बताया गया है. वो इसलिए बताया गया है क्यूंकि अर्जुन ने एक प्रश्न पूछा था कि - 

हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानू और हे भगवान् ! आप किन किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य है. (अध्याय 10 श्लोक 17)

इस अध्याय श्रीकृष्ण ने बताया है कि हे अर्जुन तू जीबन की हर वस्तु में मुझ परमात्मा को देख, हर भाव में परमात्मा को देख, हर रिश्ते में परमात्मा को देख, जीवन के हर आयाम में परमात्मा को देख. व्यक्तिभाव से हट कर देख. मनुष्य और विभिन्न प्रकार के जीव मेरे द्वारा बनाये गए है मैं केवल अपनी एक कृति जैसा कैसे हो सकता हूँ.

हमने परमात्मा को भी अपने हिसाब से गढ़ लिया है. भारत के भगवान् का चेहरा हम भारतियों से मिलता जुलता होगा और विदेश में भगवान् का चेहरा उनके हिसाब से होगा. हम कहते तो है कि भगवान् एक है और हर धर्म एक ही भगवान् की बात करता है पर जब अमल में लेन की बात आती है तो हमें अपने चेहरों मोहरों से मिलती जुलती आकृतियाँ चाहिए होती है.

पानी अगर हर जगह एक जैसा है तो अपनी पुरे अवस्था में वो हर जगह एक जैसा होना भी चाहिए. ऐसे तो गड़बड़ हो जाएगी अगर भारत का पानी अलग हुआ और दूसरी जगहों का अलग.

सिक्ख धर्म के संस्थापक परमगुरु श्री नानकदेव जी ने जो ईश्वर का निरूपण किया वो कमाल का है – एक बहुत ही बड़ी बात कही उन अति महान संत ने कि – सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार – इसका मतलब है कि उसे सोचा तो जा ही नहीं सकता इसलिए सोचने पर क्यों समय ख़राब करते हो. एक बार क्यूँ चाहो तो लाखो बार सोच कर देख लो – नहीं सोच पाओगे – क्यूंकि सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार - उन्होंने ने जपने की बात कही – वही बात श्री कृष्ण ने निरंतर चिंतन के माध्यम से कही.

और जो परमगुरु श्री नानकदेव जी ने जपजी साहब के शुरू होते ही मूलमंत्र में कह दी वो कमाल की है -

इक ओंकार सतनाम
इक ओंकार सतिनाम, करता पुरखु निरभऊ।
निरबैर, अकाल मूरति, अजूनी, सैभं गुर प्रसादि!!
जप आद सचु जुगादि सच।
है भी सचु नानक होसी भी सच।।
सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।
भुखिया भुख न उतरी जे बंना पुरीआं भार।
सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नाल।
किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पाल।
हुकमि रजाई चलणा ‘नानक’ लिखिआ नाल। “

यहाँ उन्होंने सोचने का तरीका भी बता दिया. जपना है उसका नाम और साथ में उसके, उस खुदा के, परमात्मा के, परवरदिगार के गुणों को भी ख्याल में रखना है. सोच से परमात्मा को व्यक्तिभाव से अलग कर दिया परम गुरु नानक देव जी ने. सोचने पर भी रोक लगा दी. एक दम सटीक बात. बिलकुल सच बात.

यही वेदांत कहता है, यही गीता कहती है, यही कुरान कहती है, यही बाइबिल कहती है, यही जैन धर्म कहता है, यही गौतम बुद्ध ने कहा.


पर परम गुरु श्री गुरुनानक देव जी महाराज ने इतना सरल करके कह दिया कि कमाल ही कर दिया. क्यूँ सोच रहे हो कि मैं कौन हूँ – ईश्वर कौन है क्यां है – जबकि तुम यह बात सोच ही नहीं सकते – सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार -  यह सोचने का विषय ही नहीं है. यह मन में आ ही नहीं सकता. मन को हटाना होगा, जप से, निरंतर चिंतन से, वो है बस यही सोचना है वो क्या है, कैसे है यह नहीं, कभी भी नहीं. क्यूंकि मन को इस प्रश्न का उतर पता नहीं है. फिर मन जो है वो अपने हिसाब से बहुत कुछ बताना शुरू कर देगा जोकि सही नहीं होगा क्यूंकि मन नहीं सोच सकता इस बारे में.

बस यूँ समझ लीजिये कि आपके और ईश्वर के बीच में कोई अगर है तो वो आपका मन है. और कोई भी अड़चन नहीं है, कोई भी नहीं. आपका, हम सब का सीधा सम्बन्ध है उस से, पर बीच में कोई है तो वो मन है. मन इन्द्रियों के हिसाब से सोचता है और यह बात ही इन्द्रियातीत है.

हम मानव रूपी यत्र के माध्यम से जो भी सोचेगे वो एक यंत्र का सोचना ही तो माना जायेगा. वैसे भी सोच तभी है जब मन है. सोचो से ही तो बना है मन. सोच कौन रहा है एक यंत्र. सोचने वाला न तो वो यंत्र है और न हीं उस यंत्र का तंत्र है यानि कि मन.    

 फिर सोचने वाला क्यां है. इसी बात से शुरू होगी परमात्मा की खोज यानि स्वयं की खोज से ही शुरू होगी  उसकी खोज. क्यूंकि यही एक रास्ता है. यही एक सबूत बचता है. एक ही सबूत – हमारा होना. क्यूंकि सब कुछ ही तो नाशवान है. अगर सब कुछ, हमारे चारो ओर का मंजर यदि ख़त्म हो जाये तो कुछ बचेगा तो हमारा होना बचेगा. यही एक सत्य है अभी हमारे पास कि मैं हूँ और यह बात कि मैं हूँ इसमें कभी कोई भी कमी नहीं आती, अन्य वस्तुओं के जैसे इस बात का Decay नहीं होता. मैं बच्चा था तो भी मैं था, मैं जवान हुआ तो भी मैं हूँ और मैं उम्र के अगले पड़ाव में जाऊगा तो भी मैं होउगा. मैं नहीं ढलता समय के साथ जैसे मेरे चारो ओर की वस्तुएं और वातावरण ढल रहा है.

इसलिए स्वयं की खोज करनी होगी. पर मन से यह खोज हो नहीं सकती. इसलिए मन के पार जाना होगा. मन के पार जाकर सोच नहीं होगी. क्यूंकि सोचो को ही तो छोड़ना है. फिर जो बचेगा वो वही होगा जो वो होगा.

अभी आत्मा पर मैं एक विडियो दिया था उस विडियो ने आपके मनो में बहुत से जो प्रश्न छोड़े होगे उनमे से कुछ का उत्तर इस विडियो से भी मिल जायेगा. आत्मा पर मैंने बताया था कि एक ऐसा चीज जिस जैसी कोई भी चीज इस दुनियां में पॉसिबल ही नहीं है.

वो जिसे जलाया न जा सके, वो जिसे सुखाया न जा सके, वो जिसे गलाया न जा सके, वो जिसे काटा न जा सके, वो जिस पर सोचा न जा सके – श्रीमद्भागवद्गीता. यह कल्पना से परे है और मन से भी.

वेदांत कहता है कि मनन ही आपको वह तक लेकर जा सकता है. उसका मनन. वही जो वो है. 

Thursday, 22 February 2018

कुण्डलिनी शक्ति



भारतीय योग पद्धति के अनुसार मनुष्य शरीर में 7 चक्र होते है और इन चक्रों के वैज्ञानिक प्रूफ भी उपलब्ध है. यह चक्र इस प्रकार से है, मूलाधार, स्वाधिस्थान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्त्रार चक्र. पर मेरा आज का विषय कुण्डलिनी शक्ति है और कुण्डलिनी जागरण है. मूलाधार चक्र में सांप कि तरह कुण्डल के रूप में एक शक्ति, एक उर्जा हमारे अन्दर विधमान होती है, जोकि हर मनुष्य में सुप्त अवस्था में होती है. यह उर्जा जब एक्टिव होती है तो इसे हम कहते है कुंडलिनी जागरण.

इसको जागृत करने के कई तरीके है, शक्तिपात है, कई तरीके के योग है, यूँ समझ लीजिये कि जितने भी योग के प्रकार है चाहे वो किसी भी धर्म से सम्बन्ध रखते हो उनका लक्ष्य एक ही है और वो है इस कुंडलिनी शक्ति को जागृत करना. क्यूंकि एक बार किसी भी तरीके से यदि यह शक्ति जागृत हो जाये तो फिर आगे कि यात्रा अपने आप ही चलती है.

मूलाधार चक्र में इसका स्थान है. जब यह यहाँ इस जगह में जागृत हो रही होती है तो मूलाधार चक्र के Area में कम्पन्न होने शुरू हो जाते है और कई बार शरीर में झटके भी महसूस होते है. अगर शक्तिपात में या योग करते करते आपको ऐसा महसूस हो तो समझ ले कि कुंडलिनी जागरण हो रहा है.

तीन प्रकार की नाड़ियाँ हमारे शरीर में है जिनमे हर वक़्त प्राण उर्जा प्रवाहित हो रही होती है. यह तीन नाड़ियाँ है – इड़ा, पिंगला और सुष्मना नाड़ी. आमतौर पर प्राण और मन इड़ा और पिंगला में विचरन  करता रहता है और यह दोनों नाड़ियाँ हमें पूर्णरूप से इस संसार में बनाये रखती है. पर यह कुंडलिनी शक्ति सुष्मना मार्ग में चलती गई क्यूंकि यह मार्ग आमतौर पर बंद ही होता है इसलिए कुण्डलिनी शक्ति सुप्त ही होती है हर व्यक्क्ति में. जितने भी योग है वो इसी मार्ग को खोलने का ही कार्य करते है. जैसे जैसे यह मार्ग खुलता है तो यह शक्ति जो कुण्डल मारे हुए है सीधी होनी शुरू हो जाती है और फिर यात्रा आपका मन एक अलग तरह की यात्रा पर चलने लगता है.

शरीर में जगह जगह पर कम्पन्न होते है. झटके भी लगते है. जब ऐसा होने लगे तो समझ ले कि कुंडलिनी जागरण कि प्रक्रिया शुरू हो गयी है. ऐसा होने पर आपके विचार भी बदलने लगता है. शुरू शुरू में मन डराता भी बहुत है. इसलिए कहा जाता है कि कुंडलिनी शक्ति पर यदि काम करना हो तो योग्य व्यक्ति की देखरेख में ही करे.

एक बार यह शक्ति जागृत हो जाये तो एक अलग तरह कि समझ आपमें विकसित हो जाती है. अब यह जागृत हुई समझ ही आपको आगे का रास्ता बताती है. आगे क्या करना है आपको खुद ही समझ आने लगता है. यह इस शक्ति कि सबसे बड़ी खासियत है. यानि जब योग विज्ञानं कि अपने आप से ही समझ आने लगे तो समझ ले कि कुंडलिनी शक्ति जागृत होने लगी है.

आपके प्रयासों से ऐसा भी हो सकता है कि Partial रूप से जागरण हो और फिर वो धीरे धीरे पूर्णरूप के जागरण में प्रवर्तित हो जाये. इसलिए जब इस तरह के लक्षण आये तो समझ ले अब सीरियस होकर प्रयास करना है. क्यूंकि अब डर भी सताने लगेगा साथ में. शुरू के लक्षणों में अक्सर साधक इस रास्ते को डर के कारण छोड़ देते है. इसलिए इसे एक अच्छे गुरु के सानिध्य में ही करना चाहिए.

प्राण को इडा पिंगला में न प्रवाहित करके सुष्मना में प्रवाहित होना होता है जब कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है. कुंडलिनी शक्ति इसे इसलिए कहा जाता है क्यूंकि यह सांप की तरह कुण्डल लिए हुए मूलाधार क्षेत्र में विराजमान होती है. जब सुष्मना मार्ग थोडा सा भी खुलता है तो उतनी मात्रा में यह शक्ति उस मार्ग से प्रवाहित होने लगती है.

अब जग कुण्डलिनी जागरण होगा तो बहुत सारी खूबियाँ आपके अन्दर अपने आप ही चली आएगी. जैसे कि चक्र भेदन की क्षमता आप में अपने आप आ जाएगी. वो इसलिए आएगी क्यूंकि एक बार सुष्मना मार्ग खुल जाये और यह शक्ति चलनी शुरू हो जाये तो आगे का रास्ता इसे खुद तय करना आता है और इस शक्ति के कारण ही आपको पता चलना शुरू हो जाता है कि चक्र कैसे भेदन करने है. चक्र भेदन का मतलब है कि क्गाक्रो के मध्य से सुष्मना का रास्ता बनाना.



जब यह शक्ति जागृत होती है तो ऊपर की और बढती है. इसका रास्ता सुष्मना अलग अलग चक्रों के मध्य में से होकर जाता है. अपने मार्ग को यानि सुष्मना नाड़ी के मार्ग को खुद ही शुद्ध करती हुई यह शक्ति आगे बढती है. प्राणयाम करवाती हुई आपको खुदबखुद आगे की ओर ले कर चलती है.

जो प्राणायाम यह शक्ति करवाती है उस प्राणायाम से मन के विकार अपने आप ही समाप्त होने शुरू हो जाते है और तीनो नाड़ियों को शुद्ध यानि मल रहित कर देती है. जैसे जैसे इस शक्ति के द्वारा प्राण शुद्ध होता है वैसे वैसे मन स्थिर होता चला जाता है.

हर वक़्त अलग अलग अनुभव करवाती है यह शक्ति. क्यूंकि कभी यह द्रुत गति से चलती है और कभी बिलकुल ही धीरे धीरे.

अब जो शिव और शक्ति के बीच में जो सबसे बड़ी अड़चन है वो है काम. अब जैसे जैसे यह शक्ति शिव की ओर बढती है तो शिव की कृपा से यह काम भस्म हो जाता है. काम विजय से ही इस शक्ति का समागम सही व् से हो सकता है और जब ऐसा हो जाता है तो विभिन्न प्रकार कि कलाएं व्यक्तित्व में अपने आप ही आ जाती है.



Monday, 19 February 2018

मन - एक अनसुलझा रहस्य


अनसुलझा रहस्य - हमारा मन




चितविक्षेप (Scattered Mind) एक प्रॉब्लम है मन की जिसे इंग्लिश में Drifting of Mind जिसका मतलब है कि मन कभी भी एक विषय पर टिकता नहीं है. कहते है कि मन से ज्यादा स्पीड किसी की नहीं हो सकती. मन drift करता रहता है एक सोच से दूसरी सोच पर. और ऐसा भी नहीं होता कि हर समय यह drifting एक जैसी हो. यह drifting भी मन की कंडीशनिंग पर depend पर करती है.

उदहारण के तौर पर – मान लीजिए कि हम किसी मार्किट में जा रहे है और देखते है कि एक लकड़ी सी भरी हुई ठेली हमारे सामने आ जाती है और हम रुक जाते है अब जैसे ही रुकते है तो हमारा ध्यान लकड़ियों पर जाता है कि यह लकड़ियाँ है – अब  drifting of Mind शुरू हो जाती है – लकड़ियाँ जलती है – इनसे खाना बनता है – मुझे खाने में गाजर का हलवा पसंद है – पिछली बार जो गाजर का हलवा खाया था वो ज्यादा अच्छा नहीं था – गाजरे खेतो में उगती है – खेत तो यहाँ से बहुत दूर है – खेतों में बहुत ही कम लोग रहते है – दूर दूर तक कोई नहीं होता – पर शहरो में ऐसा नहीं  होता – बाजारों में तो बिलकुल भी नहीं – फिर बाज़ार में खुद के पास पहुच जाते है – यह हुई एक तरह की drifting of Mind. यह जब हुआ तो मन की कंडीशन उमंग से भरी थी.

वही सिचुएशन है - कि हम किसी मार्किट में जा रहे है और देखते है कि एक लकड़ी सी भरी हुई ठेली हमारे सामने आ जाती है और हम रुक जाते है अब जैसे ही रुकते है तो हमारा ध्यान लकड़ियों पर जाता है कि यह लकड़ियाँ है – अब  drifting of Mind शुरू हो जाती है – लकड़ियाँ जलती है – वो चिता भी लकड़ियों से जल रही थी – शमशान कि लकड़ियों और दूसरी लकड़ियों में भी काफी फर्क रहता होगा – पर लकड़ियाँ तो लकड़ियाँ ही होती है – सूखे पेड़ ही तो होते है – आजकल पेड़ बचे ही कहा है – लोग ही बढ़ते जा रहे है – चारो तरफ बाज़ार ही बाज़ार तो है – और यहाँ फिर हम main point पर आ जाते है – कि हम बाज़ार में खड़े है - यह हुई एक अन्य तरह की drifting of Mind. यह जब हुआ तो मन की कंडीशन उमंग से नहीं भरी थी.

यह drifting of Mind ही हमें जीवन में कुछ भी सही ढंग से करने से रोकती है. क्यूंकि हमारा बहुत सा समय तो mind की यह drifting ही खा जाती है. हम जो कर रहे होते है उसपर कभी सही तरीके से समय ही नहीं लगा पाते यह drifting of Mind समय लगाने ही नहीं देती. फिसला देती है, भटका देती है. अगर हम इस drifting of Mind को समझ ले और इस पर काम करना शरू कर दे तो जीवन इतना आसान बन जायेगा की आप सोच ही नहीं सकते.

आप जानते है कि एक अच्छे Cook और बुरे Cook में क्यां फर्क होगा? समय दोनों ही लगा रहे है. पर एक के हाथो में जादू है और दूसरा बस केवल एक Cook मात्र ही है. याद रखिये कि समय दोनों ही लगा रहे है अच्छा कुक भी और कम अच्छा कुक भी. पर एक का मन उस वक़्त Drift नहीं करता जब वो Cooking कर रहा होता है और दुसरे का मन हर वक़्त Drift करता रहता है. बस इसी Point को समझना है. मन कब भटक जाता है बस इतना समझ लिया तो समझो काम बन गया. जीवन आसान होने का काम बन गया. जीवन आसान हो जायेगा, आप अच्छे से सोच पायेगे. आपको सोचने के लिए समय मिल जायेगा. क्यूंकि ऐसा नहीं है  कि हमारे मन में कोई खराबी है, सच बात तो यह है कि हमें drifting of Mind ने, भटकते मन हमें सोचने ही नहीं दिया कभी खुद के बारे में भी. 

हम में से बहुत सारे लोग drifting of Mind का शिकार है. आज आप अपने Present Circumstances से यदि खुश नहीं है तो इसकी वजह एक ही है और वो है आपके Mind कि Drifting. ऐसा है ही इसलिए क्यूंकि आपके मन ने आपको कभी सोचने ही नहीं दिया. जब भी कभी सोचने कि कौशिश कि तो मन ने उसी वक़्त भटका दिया और फिर हम ही भूल गए कि सोचना क्या था. मन का तो कार्य ही है भटकना, उसका गुण है यह, पर इसे समझ कर इसे ठीक भी किया जा सकता है. यक़ीनन ठीक किया जा सकता है. लेकिन पहले मालूम हो तभी, क्यूंकि मन इतनी खूबसूरती से Drift करवाता है कि हमें पता ही नहीं चल पाता कि हम अपने मकसद से कब भटक गए. और फिर भटकते ही चले गए. और कई बार तो जीवनभर मन के इस गुण का पता नहीं चल पाता. मन भाग रहा है हरपल भाग रहा है, हर दम भाग रहा है हमारे द्वारा ही संचित किये गए विचारों के अन्दर ही. ऐसे में हमारा ही मन हमें हमारे ही बारे में सोचने का समय भी नहीं देता तो इसका मतलब यह निकलता है कि हम अपने अनुसार नहीं अपने मन के अनुसार जीवन जीते चले जा रहे है. ऐसे में मन कई तरह की विकृतियों को साथ ले लेता है क्यूंकि उसपर अगर कण्ट्रोल नहीं होगा तो वो कही भी जा सकता है. कण्ट्रोल वास्तव में आपके पास में है. पहले समझना होगा. बस समझना ही होगा, बस इतने से ही काम चल जायेगा.

वेदांत बार बार हमें एक सलाह देता है. बार बार एक ही सलाह कि बुद्धि की बात मानो अपने मन की नहीं, जब भी बात करो बुद्धि से करो. इसका मतलब यह है कि जब भी सोचो तो भी बुद्धि की मदद से ही सोचो और कोई भी कार्य करो बुद्धि की मदद से ही करो. बार बार बुद्धि का ही प्रयोग करो. बार बार बुद्धि का प्रयोग करने से बड़ी ही आसानी से काम बन जायेगा. बहुत ही प्रैक्टिकल बात है यह जो कि आसानी से कि भी जा सकती है. बस यह ही समझ ले कि बिना बुद्धि से कोई भी काम करना ही नहीं है, बस इतना करने से ही आपके मन की Drfiting रुकनी शुरू हो जाएगी. और आप जीवन को समझने लगेगे, भटकते मन को रोकना बहुत ही जरुरी है नहीं तो अपने ही जीवन को कभी भी नहीं समझ पायेगे, कभी भी नहीं.

जीवन को समझने के लिए मन को समझना जरुरी है. याद रखिये कि यदि आप मन को नहीं समझेगे तो मन आपको कभी भी खुद को नहीं समझने देगा.