Sunday, 25 February 2018

परमात्मा क्यां है?


What is God?

कहा से शुरू करू यह अनमोल बात? चलिए भगवद्गीता से शुरू करता हूँ. अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच में सवांद, भगवद्गीता. जहा अर्जुन ने को श्रीकृष्ण को जब अपना वास्तविक रूप दिखाने की बात कही तो उन्होंने कहा की तुम इस तरह से नहीं देख पाओगे उसके लिए मुझे तुम्हे अलग अलौकिक आँखे देनी पड़ेगी तब तुम समझ पाओगे कि मैं क्यां हूँ. इसलिए एक बात निश्चित है कि आप इस तरह से नहीं जान सकते इस शरीर में उपलब्ध समझ के बल से.
थोडा और आगे चलते है.

श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 24 – जिसका हिंदी में आशय है कि –
बुद्धिमान पुरुष मेरे अनुमत अविनाशी परम भाव न जानते हुए मन इन्द्रियों से परे मुझ सचिच्दानंद परमात्मा को मनुष्य की भांति जन्मकर व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते है.

फिर श्लोक 25 –
अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अथार्थ जन्मने मरने वाला समझता है.

दो बाते मैंने बताई है एक तो लौकिक आँखों द्वारा नहीं जान सकते. केवल लौकिक आँखों द्वारा ही नहीं बल्कि अन्य किसी भी इंद्री के द्वारा नहीं जान सकते. मन के द्वारा भी नहीं जान सकते.

दुसरे हमें अपनी सोच से परमात्मा को व्यक्तिभाव से अलग करना होगा. श्रीमद्भागवद्गीता का दसवाँ अध्याय विभुतोयोग कहा गया है. जिसमे परमात्मा की विभूतियों के बारे में बताया गया है. वो इसलिए बताया गया है क्यूंकि अर्जुन ने एक प्रश्न पूछा था कि - 

हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानू और हे भगवान् ! आप किन किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य है. (अध्याय 10 श्लोक 17)

इस अध्याय श्रीकृष्ण ने बताया है कि हे अर्जुन तू जीबन की हर वस्तु में मुझ परमात्मा को देख, हर भाव में परमात्मा को देख, हर रिश्ते में परमात्मा को देख, जीवन के हर आयाम में परमात्मा को देख. व्यक्तिभाव से हट कर देख. मनुष्य और विभिन्न प्रकार के जीव मेरे द्वारा बनाये गए है मैं केवल अपनी एक कृति जैसा कैसे हो सकता हूँ.

हमने परमात्मा को भी अपने हिसाब से गढ़ लिया है. भारत के भगवान् का चेहरा हम भारतियों से मिलता जुलता होगा और विदेश में भगवान् का चेहरा उनके हिसाब से होगा. हम कहते तो है कि भगवान् एक है और हर धर्म एक ही भगवान् की बात करता है पर जब अमल में लेन की बात आती है तो हमें अपने चेहरों मोहरों से मिलती जुलती आकृतियाँ चाहिए होती है.

पानी अगर हर जगह एक जैसा है तो अपनी पुरे अवस्था में वो हर जगह एक जैसा होना भी चाहिए. ऐसे तो गड़बड़ हो जाएगी अगर भारत का पानी अलग हुआ और दूसरी जगहों का अलग.

सिक्ख धर्म के संस्थापक परमगुरु श्री नानकदेव जी ने जो ईश्वर का निरूपण किया वो कमाल का है – एक बहुत ही बड़ी बात कही उन अति महान संत ने कि – सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार – इसका मतलब है कि उसे सोचा तो जा ही नहीं सकता इसलिए सोचने पर क्यों समय ख़राब करते हो. एक बार क्यूँ चाहो तो लाखो बार सोच कर देख लो – नहीं सोच पाओगे – क्यूंकि सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार - उन्होंने ने जपने की बात कही – वही बात श्री कृष्ण ने निरंतर चिंतन के माध्यम से कही.

और जो परमगुरु श्री नानकदेव जी ने जपजी साहब के शुरू होते ही मूलमंत्र में कह दी वो कमाल की है -

इक ओंकार सतनाम
इक ओंकार सतिनाम, करता पुरखु निरभऊ।
निरबैर, अकाल मूरति, अजूनी, सैभं गुर प्रसादि!!
जप आद सचु जुगादि सच।
है भी सचु नानक होसी भी सच।।
सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।
भुखिया भुख न उतरी जे बंना पुरीआं भार।
सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नाल।
किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पाल।
हुकमि रजाई चलणा ‘नानक’ लिखिआ नाल। “

यहाँ उन्होंने सोचने का तरीका भी बता दिया. जपना है उसका नाम और साथ में उसके, उस खुदा के, परमात्मा के, परवरदिगार के गुणों को भी ख्याल में रखना है. सोच से परमात्मा को व्यक्तिभाव से अलग कर दिया परम गुरु नानक देव जी ने. सोचने पर भी रोक लगा दी. एक दम सटीक बात. बिलकुल सच बात.

यही वेदांत कहता है, यही गीता कहती है, यही कुरान कहती है, यही बाइबिल कहती है, यही जैन धर्म कहता है, यही गौतम बुद्ध ने कहा.


पर परम गुरु श्री गुरुनानक देव जी महाराज ने इतना सरल करके कह दिया कि कमाल ही कर दिया. क्यूँ सोच रहे हो कि मैं कौन हूँ – ईश्वर कौन है क्यां है – जबकि तुम यह बात सोच ही नहीं सकते – सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार -  यह सोचने का विषय ही नहीं है. यह मन में आ ही नहीं सकता. मन को हटाना होगा, जप से, निरंतर चिंतन से, वो है बस यही सोचना है वो क्या है, कैसे है यह नहीं, कभी भी नहीं. क्यूंकि मन को इस प्रश्न का उतर पता नहीं है. फिर मन जो है वो अपने हिसाब से बहुत कुछ बताना शुरू कर देगा जोकि सही नहीं होगा क्यूंकि मन नहीं सोच सकता इस बारे में.

बस यूँ समझ लीजिये कि आपके और ईश्वर के बीच में कोई अगर है तो वो आपका मन है. और कोई भी अड़चन नहीं है, कोई भी नहीं. आपका, हम सब का सीधा सम्बन्ध है उस से, पर बीच में कोई है तो वो मन है. मन इन्द्रियों के हिसाब से सोचता है और यह बात ही इन्द्रियातीत है.

हम मानव रूपी यत्र के माध्यम से जो भी सोचेगे वो एक यंत्र का सोचना ही तो माना जायेगा. वैसे भी सोच तभी है जब मन है. सोचो से ही तो बना है मन. सोच कौन रहा है एक यंत्र. सोचने वाला न तो वो यंत्र है और न हीं उस यंत्र का तंत्र है यानि कि मन.    

 फिर सोचने वाला क्यां है. इसी बात से शुरू होगी परमात्मा की खोज यानि स्वयं की खोज से ही शुरू होगी  उसकी खोज. क्यूंकि यही एक रास्ता है. यही एक सबूत बचता है. एक ही सबूत – हमारा होना. क्यूंकि सब कुछ ही तो नाशवान है. अगर सब कुछ, हमारे चारो ओर का मंजर यदि ख़त्म हो जाये तो कुछ बचेगा तो हमारा होना बचेगा. यही एक सत्य है अभी हमारे पास कि मैं हूँ और यह बात कि मैं हूँ इसमें कभी कोई भी कमी नहीं आती, अन्य वस्तुओं के जैसे इस बात का Decay नहीं होता. मैं बच्चा था तो भी मैं था, मैं जवान हुआ तो भी मैं हूँ और मैं उम्र के अगले पड़ाव में जाऊगा तो भी मैं होउगा. मैं नहीं ढलता समय के साथ जैसे मेरे चारो ओर की वस्तुएं और वातावरण ढल रहा है.

इसलिए स्वयं की खोज करनी होगी. पर मन से यह खोज हो नहीं सकती. इसलिए मन के पार जाना होगा. मन के पार जाकर सोच नहीं होगी. क्यूंकि सोचो को ही तो छोड़ना है. फिर जो बचेगा वो वही होगा जो वो होगा.

अभी आत्मा पर मैं एक विडियो दिया था उस विडियो ने आपके मनो में बहुत से जो प्रश्न छोड़े होगे उनमे से कुछ का उत्तर इस विडियो से भी मिल जायेगा. आत्मा पर मैंने बताया था कि एक ऐसा चीज जिस जैसी कोई भी चीज इस दुनियां में पॉसिबल ही नहीं है.

वो जिसे जलाया न जा सके, वो जिसे सुखाया न जा सके, वो जिसे गलाया न जा सके, वो जिसे काटा न जा सके, वो जिस पर सोचा न जा सके – श्रीमद्भागवद्गीता. यह कल्पना से परे है और मन से भी.

वेदांत कहता है कि मनन ही आपको वह तक लेकर जा सकता है. उसका मनन. वही जो वो है. 

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