Tuesday, 27 March 2018

महात्मा बुद्ध के चार महान सत्य - Four Noble Truth of Gautam Buddha


अपने सामाजिक जीवन को छोड़ने के बाद, वो चार घटनाए देखने के बाद और बहुत कुछ समझने के बाद महात्मा बुद्ध ने चार महान सत्यों को उजागर किया.

दुःख – दुःख है - संसार में दुःख है.
समुदय - दुःख का कारण भी है 
निरोध – उस कारण का निवारण भी है
मार्ग – निवारण के लिय तरीका भी है

चार घटनाएँ – एक दिन जब सिद्धार्थ सैर पर निकले तो उन्होंने देखा – एक बुढा व्यक्ति जो लाठी के सहारे कापते हुए चल रहा था, फिर एक रोगी व्यक्ति को देखा, फिर उन्होंने एक अर्थी को देखा और अंत में उन्होंने एक सन्यासी को देखा जो अपनी ही मस्ती में मग्न था. बुद्ध अभी तक महलों में रहते आये थे उनके लिए यह तीनो घटनाए बिलकुल नयी थी, यह उनके लिए एक बिलकुल ही नया अनुभव था. वो हैरान रह गए यह देख कर कि इंसान को इतना दुःख भी मिल सकता है.

बड़े ही ध्यान से इन सभी बातों पर जो उन्होंने देखी थी उन पर विचार किया तो संसार को छोड़ दिया.

उन्होंने देखा कि संसार में दुःख है. उन्होंने इस बात पर काम किया कि दुःख है क्यूँ? यानि इस दुःख का कारण क्यां है? और अगर इसका कोई कारण है तो क्यां उसका निवारण भी है? उन्होंने पाया कि हा इस दुःख का निवारण भी है. निवारण का जो मार्ग उन्होंने दिया वो महात्मा बुद्ध की प्रमुख शिक्षाओ में से एक है. बौद्ध प्रतीकों में प्रायः अष्टांग मार्गों को धर्मचक्र के आठ ताड़ियों (spokes) द्वारा निरूपित किया जाता है.

बौद्ध धर्म के अनुसार, चौथे आर्य सत्य का अष्टांग मार्ग है - दुःख निरोध पाने का रास्ता। गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करने के लिए इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए :

सम्यक दृष्टि : चार Noble Truth में विश्वास करना
सम्यक संकल्प : मानसिक और नैतिक विकास की प्रतिज्ञा करना
सम्यक वाक : हानिकारक बातें और झूठ न बोलना
सम्यक कर्म : अपने कर्मो पर नज़र बनाये रखना ताकि वो आप सही कर्म ही करे
सम्यक जीविका : अपनी जीविका को शुद्ध रखना 
सम्यक प्रयास : प्रयास आपको खुद ही करना है कोई और नहीं आएगा
सम्यक स्मृति : सम्यक समृति आएगी अपने आप ही आएगी
सम्यक समाधि : निर्वाण पाना और स्वयं को मिटा देना.

क्यूंकि बहुत जरुरी था यह बताना कि करना क्यां है. तभी यह अष्टांग मार्ग सामने आया. वो तरीका बुद्ध ने दिया कि सबसे पहले दुःख को कैसे हटाया जाये. क्यूंकि समस्या यह थी कि हम जिसे सुख समझ रहे है वही वास्तव में दुःख है. मन को भगा भगा कर और मन के साथ भाग भाग कर सुख नहीं पैदा हो सकता. मन को रोक कर ही सुख पैदा हो सकता है और उसे सुख भी नहीं कहेंगे बल्कि आनंद कहेंगे.

वेदांत भी तो यही कहता है कि संसार की  कोई भी वस्तु, व्यक्ति या फिर रिश्ता आपको सुख दे ही नहीं सकता क्यूंकि किसी भी वस्तु विशेष का वास्तविक वजूद तो है ही नहीं. अगर कोई वस्तु विशेष वास्तविक है ही नहीं तो उससे उत्पन्न सुख वास्तविक कैसे हो सकता है. एक उदहारण वेदांत में बार बार दिया जाता है कि हम रस्सी को सांप समझ रहे है. और जब हम रस्सी को सांप समझ रहे होते है एक साथ दो गलतियाँ कर रहे होते है –
हम रस्सी को सांप समझ रहे है. – रस्सी को सांप समझ कर डर रहे होते है. 
हम रस्सी को रस्सी नहीं समझ रहे है – यानि हमने रस्सी पर तो काम अभी शुरू ही नहीं किया.
यही बात बुद्ध बताना चाहते थे.  

हमने मन के द्वारा खुद को बहुत सारे बन्धनों में बंधा हुआ है. यही बंधन ही हमारे दुःख का कारण है. तभी महात्मा बुद्ध ने कारण पर काम करने की बात की. बुद्ध ने समझ लिया था कि यदि मैं किसी को कारण तक ले जाता हूँ तो उसे निवारण तक आसानी से ले जाया जा सकेगा. 

Sunday, 25 March 2018

क्यां आपको डर लगता है?




जब मैं छोटा बच्चा था तो मुझे डर के बारे में कुछ ज्यादा नहीं मालूम था. मेरे पेरेंट्स को बताना पड़ता था कि यह डरने की बात है. पर आमतौर पर उन्हें एक बार ही बताना पड़ता था कि यह डर है या इस वस्तु से या फिर इस बात से डरना चाहिए. बस फिर वो डर हमेशा के लिए बना रहता था. हा कुछ डर तो उम्र बढ़ने के साथ साथ ख़त्म ही हो गए थे पर कुछ मेंटल पैटर्न बन कर हमेशा के लिए डर बन गए थे.

कुछ डर थे जैसे कि अँधेरे में नहीं जाना कोई भुत खा जायेगा. इस तरह के डर कई बार उम्र भर बना रहता है. मन में दर्ज हो गया था कि अँधेरा मतलब भूत तो होगा ही. ऐसे ही बहुत से डर हमारे जेहन के कई जन्मो से भी दर्ज होगे. हर व्यक्ति के अलग फोबिया है. किसी को उचाई से डर लगता है तो किसी को बंद कमरे में तो किसी को तंग जगह से और किसी को वीराने से तो किसी को अकेलेपन से.

मैं उन डरो की बात कर रहा हूँ जो बहुत सारे लोगो के जेहन में है. बाकि कुछ डर तो वास्तविक भी होते ई और उनसे डरना भी चाहिए. जैसे करंट से डरना चाहिए, आग से डरना चाहिए, ऐसी कोई भी वस्तु जो जीवन के लिए खतरा हो उससे जरुर डरना चाहिए और बचना चाहिए.

अब यह जो डर है यह है क्यां और यह दूर कैसे होंगे. देखिये डर वो मेंटल पैटर्न है हमें हमने ही अपने अन्दर सजा रखा है, जिसे हमने ही अपने मन को बताया है कि किस  स्थिति में ऐसा रिस्पांस करना है. डर भी मन है, डरना भी मन है और जो डरा रहा वो भी मन है.

अब यह मेंटल पैटर्न या संस्कार इतने सारे है कि उन्हें हटाने के लिए हमें मन का ही प्रयोग करना पड़ेगा. यह सभी के सभी मेंटल पैटर्न हमारे अवचेतन मन में चले गए है. अब अगर हमें इन मेंटल पैटर्न्स को हटाना है तो हमें अपने अवचेतन मन तक जाना होगा. देखिये बात बताने से कि - नहीं डरना नहीं चाहिए, डरो मत, साहसी बनो, डर कुछ भी नहीं होता मन का वहम होता है बला बला बला..इन सब बातो से न तो कभी डर गया है और न ही जायेगा.

अब अवचेतन मन तक कैसे जाये यह बात है. हमारे पास हमारे अवचेतन मन तक पहुचने का सबसे आसन तरीका है योग. और योग में अवचेतन मन तक पहुचने का सबसे आसन तरीका है योग निद्रा. और भी तरीके है, हम प्राणायाम से भी अवचेतन मन तक पहुच सकते है, मन्त्र जप से भी पहुच सकते है. पर योग निद्रा सबसे आसन है.

एक बड़ी खास बात है इसमें कि अगर हमने अवचेतन मन में किसी भी मेंटल पैटर्न को देख लिया तो वो समाप्त हो जाता है. इसके पीछे क्या साइंस है वो एक अलग matter है. लेकिन यह बात एकदम सच है.

योग निद्रा में हमें एक संकल्प करना होता है और वो संकल्प हमारे अवचेतन मन तक पहुचता है और जीवन में चितार्थ होता है. लेकिन अगर हम नियमित रूप से यदि ध्यान करे तब भी अपने डर से हमेशा के लिए निजात पा सकते है. ध्यान बहुत ज्यादा सहायक है डर को मूल रूप से समाप्त करने के लिए.
     





Saturday, 24 March 2018

एक अद्भुत ध्यान विधि



आज मैं आपको एक अद्भुत ध्यान विधि के बारे में बताने जा रहा हूँ. यह विधि पूरी तरह से व्यवाहरिक है और इस से बहुत ही अच्छे परिणाम आते है. इस ध्यान विधि को मैंने वेदांत और पतंजलि योग सूत्र के माध्यम से discover किया है फिर इस पर काम किया है और रिजल्ट्स मिलने के बाद मैं इस खास विधि को आप सबके साथ शेयर करना चाहता हूँ.

इस ध्यान विधि से मैं आपके मन को मंत्रो के माध्यम से टिकाने की कौशिश करूगां. जितना अधिक आप इस ध्यान का प्रयोग करेंगे उतनी ही आपकी एकाग्रता बढती जाएगी.

मैं आपको एक अक्षर मन्त्र से दुर्गा बतीस नामावली तक ले कर जाऊगा. पहले हम एक अक्षर मन्त्र पर अपना मन लगायेगे फिर 2 अक्षर फिर 3 और फिर और अधिक..इस तरह से हम मन्त्र उचारण के साथ साथ यह चेक करेगे कि कितनी बार हमारा मन भटका और किस मन्त्र पर हमारा मन सही तरह से टिक सकता है.
 
शुरुआत शंतिमंत्र से करेंगे

ॐ सहनाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः हि ॥
हरि ॐ .....

यह शान्ति मंत्र श्वेताश्वतरोपनिषद से है... जो कृष्ण यजुर्वेद शाखा का उपनिषद है...

भावार्थ: हे प्रभु ! आप हम दोनों ( गुरु-शिष्य) की रक्षा करें... हम दोनों का पोषण करें... हम दोनो को शक्ति प्रदान करें... हमारा ज्ञान तेजमयी हो... और हम किसी से द्वेष न करें...

फिर से एक प्रार्थना के रूप में एक मन्त्र बोलेगे

असतो मा सदगमय ॥ तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥ मृत्योर्मामृतम् गमय ॥

(हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो । अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥।

अब हम सबसे पहले  ॐ मन्त्र पर ध्यान केन्द्रित करेगे. इस बीच मन कहा कहा भागता है. इसे चेक करते रहना है.

बार बार मन भागेगा और बार बार पकड़ कर लाना है. हमने दो काम एक साथ करने है एक तो ॐ को बोलना है और दूसरा अपने ही बोलो हुए ॐ को सुनना भी है. आप बोलते तो रहेगे पर सुनते वक़्त मन भटक  जायेगा बस उसे बार बार फिर पकड़ कर लाना है और फिर से ॐ, ॐ, ॐ, ॐ पर लगा देना है.

धीरे धीरे आपका मन भागना कम कर देगा. अब हम मन्त्र को और बड़ा करेगें

हरि ॐ – अब हरि ॐ ही चैंट करना है. और हरि ॐ पर ही मन को टिकाना है. हमने फिर से वही दो काम 
एक साथ करने है एक तो हरि ॐ को बोलना है और दूसरा अपने ही बोलो हुए हरि ॐ को सुनना भी है. अब भी वैसा ही होगा कि आप बोलते तो रहेगे पर सुनते वक़्त मन भटक  जायेगा बस उसे बार बार फिर पकड़ कर लाना है और फिर से हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ पर लगा देना है.

बात वही ख्याल रखनी है कि मन इस मन्त्र में कितना  टिक पा रहा है.

अब मन्त्र को और लम्बा करना है और मन को देखना है कि कितना टिक पाता है. अब मन्त्र होगा

हरि ॐ तत सत्

फिर वही तरीका मन ही मन बोलना और मन ही मन सुनना. मन अब भागना कम हो जायेगा. पर फिर भी बीच बीच में भागेगा फिर से पकड़ कर लाना है और हरि ॐ तत सत् लगा देना है.

अब द्वादश अक्षर मन्त्र का जप करना है. मन्त्र है -
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय..

तरीका वही है. देखते रहना है कि कब मन भटक कर भाग गया. कहा से निकल कर भाग गया. 
अब मन्त्र को लम्बा करना है. 24 अक्षर वाले गायत्री मन्त्र पर ध्यान करना है. 

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
भावार्थ:- उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

फिर वही तरीका मन ही मन बोलना और मन ही मन सुनना. मन अब भागना कम हो जायेगा. पर फिर भी बीच बीच में भागेगा फिर से पकड़ कर लाना है और गायत्री मन्त्र पर लगा देना है. मन किसी भी अक्षर से भाग सकता है इस बात का ध्यान रखना है.

अब मन्त्र को और भी लम्बा करना है और जितना ज्यादा मन इस मन्त्र पर टिक सके टिकाना है. अब दुर्गा बतीस नामावली

मां दुर्गा के 32 नाम
ॐ दुर्गा, दुर्गतिशमनी, दुर्गाद्विनिवारिणी, दुर्ग मच्छेदनी, दुर्गसाधिनी, दुर्गनाशिनी, दुर्गतोद्धारिणी, दुर्गनिहन्त्री, दुर्गमापहा, दुर्गमज्ञानदा, दुर्गदैत्यलोकदवानला, दुर्गमा, दुर्गमालोका, दुर्गमात्मस्वरुपिणी, दुर्गमार्गप्रदा, दुर्गम विद्या, दुर्गमाश्रिता, दुर्गमज्ञान संस्थाना, दुर्गमध्यान भासिनी, दुर्गमोहा, दुर्गमगा, दुर्गमार्थस्वरुपिणी, दुर्गमासुर संहंत्रि, दुर्गमायुध धारिणी, दुर्गमांगी, दुर्गमता, दुर्गम्या, दुर्गमेश्वरी, दुर्गभीमा, दुर्गभामा, दुर्लभा, दुर्गोद्धारिणी.

मन अगर एक बार भी बीच में नहीं भागे तो एक अच्छी achievement होगी.

फिर वही तरीका मन ही मन बोलना और मन ही मन सुनना. मन अब भागना कम हो जायेगा. पर फिर भी बीच बीच में भागेगा फिर से पकड़ कर लाना है और मन्त्र पर लगा देना है.




Wednesday, 21 March 2018

तीन रहस्यमयी अवस्थाएं – जिनसे हम रोज़ गुजरते है


तीन रहस्यमयी अवस्थाएं – जिनसे हम रोज़ गुजरते है


जीवन बहुत से रहस्यों से भरा पड़ा है असल में तो हमारा होना ही अपने आप में एक अद्भुत घटना है और रहस्मयी भी है. कभी कभी यह प्रश्न कि कौन हूँ मैं और क्यूँ हूँ मैं अपने आप ही जेहन में चला आता है खासतौर पर उस समय जब हम जीवन के किसी दुखद भाग से गुजर रहे होते है. थोड़ी देर के लिए या शायद कुछ क्षण के लिए हम इस प्रश्न पर गौर करते है और फिर भूल जाते है. और खो जाते है अपने ही बनाये हुए संसार में.

समझ नहीं आ पाता कि मेरा जो वजूद है;  वो है क्यां. मैं हूँ, एक शरीर में हूँ;  कुछ देख रहा हूँ, कुछ सुन रहा हूँ, कुछ Smell कर पा रहा हूँ, कुछ स्वाद ले पा रहा हूँ और कुछ महसूस कर पा रहा हूँ.

फिर मैं स्वप्न में होता हूँ तो फिर वैसा ही संसार रचा हुआ होता है कि जैसे एक दम रियल हो. स्वप्न में भी मैं सब कुछ महसूस कर रहा होता हूँ जैसा कि waking state में होता है. लेकिन यह समझ नहीं आता की वो सच है या फिर यह.

फिर एक तीसरी अवस्था भी आती है. जिसे सुषुप्ति अवस्था कहते है. जिसके बारे में बस इतना मालूम पड़ता है कि वो है और कुछ भी नहीं. इसमें न तो स्वप्न होते है और न ही जाग्रति. बस जागने पर पता चलता है कि आज काफी अच्छी नींद आई. सुषुप्ति कब होती है – जिस समय महसूस करने वाला किसी वस्तु के विषय में कुछ नहीं जानता. न कुछ जानना होता है न कोई वस्तु और सबसे मज़े की बात कि जानने वाला भी गम हो जाता है. जागृति में, स्वपन में वस्तुएं थी, व्यक्ति थे, स्थान थे, अच्छा बुरा था, मन था, इन सबसे सबंध भी थे. पर इस अवस्था में कुछ भी नहीं होता कुछ भी नहीं.

यह बड़ी ही विचित्र अवस्था है. शरीरी का शरीर से कोई भी सबंध नहीं रहता और इस समय वो मन के भी सारे के सारे शोकों को पार कर लेता है. कुछ भी तो नहीं होता. वही जो महात्मा बुद्ध ने कहा था जब उनसे पूछा गया कि परमात्मा क्यां है. बड़ी सहजता से उत्तर उन्होंने दिया था कि – Nothingness – कुछ भी नहीं – कुछ भी नहीं है परमात्मा. वेदांत भी यही कहता है. गुरु नानकदेव जी ने भी यही कहा. बस शब्द बदल गए. कहने का तरीका बदल गया.

तो फिर से अपनी बात पर आता हूँ -- सुषुप्ति अवस्था – यह अवस्था संसार के दुखों से रहित है. न संसार, न हमारा होना आखिर है क्यां ये. कुछ कुछ माया यानि इग्नोरेंस कि बात समझ आ रही है. अवस्था बदल जाये तो कुछ नहीं है और बहुत कुछ है भी. कमाल ही है. 

विज्ञानं कहता है कि Dreamless state में यदि हम न जाये तो पूरा सोने के बाद भी ऐसा नहीं लगता कि हम सोये थे. सारी रिचार्जिंग इसी state में होती है.

इन तीन अवस्थाओं से हम हर रोज़ गुजर रहे है. daily. और यह तय नहीं किया जा सकता कि सच क्या है. हम एक शरीर में है - मानव शरीर में. एक यंत्र है जिसमे आँख देख रही है एक दृश्य को और इस दृश्य को एक महसूस करने वाला भी है जो देख रहा है आँख के द्वारा. दृश्य जो है वो आँख के द्वारा देखा जा रहा है. अब यदि आँख को हटा दिया जाये तो दृश्य का क्या होगा. क्यां वो दृश्य वैसा ही होगा जैसा कि आँख से दिख रहा है. एक ही दृश्य को जानवर अलग तरीके से Perceive कर रहे है और हम अलग तरीके से. उनको जो दिखाई दे रहा है वो हमें नहीं और हमें जो दिखाई दे रहा है वो उन्हें नहीं.  यही माया है, Ignorance है. देखने वाला आज़ाद नहीं है. लिमिटेड है आँखों के द्वारा, कानो के द्वारा, नाक के द्वारा, जिहा के द्वारा और अपनी स्किन के द्वारा. लेकिन यह सब के सब यंत्र है और जो इनके द्वारा ज्ञान पैदा हो रहा है वो तब तक महत्वपूर्ण है जब तक की देखने वाला इन यंत्रो से देख रहा है या महसूस कर रहा है. इसलिए इस ज्ञान को वेदांत इग्नोरेंस कहता है. क्यूंकि इस ज्ञान कि सच्चाई केवल मानव रूपी यंत्र के लिए है बस और कुछ नहीं.

अपरोक्षानुभूति एक अतिमहत्वपूर्ण रचना है शंकराचार्य की और बहुत ही अद्भुत पुस्तक है. इस पुस्तक में इन तीनो अवस्थाओ का जिक्र आया है. अपरोक्षानुभूति के अनुसार Ignorance और Thoughts मिल कर सब कुछ रच रहे है. Ignorance का मतलब है अज्ञान और Thoughts का मतलब है विचार, हमारे खुद के विचार.

अब सब कुछ यात्रिक है और सब यंत्रो और वस्तुओं के Parameters भी है पर देखने वाला जो है वो यात्रिक नहीं है उसके पैरामीटर भी नहीं है. यह जो देखने वाला है वो जागृत अवस्था में भी है, स्वप्न अवस्था में भी है और सुषुप्ति अवस्था में भी है. मैं अपने चारो और के संसार को देख रहा हूँ, महसूस कर रहा हूँ, और फिर स्वप्न में फिर एक नई दुनियां को महसूस भी करता हूँ और देखता भी हूँ, सुषुप्ति घटित होने के बाद उसका भी साक्षी रहता हूँ.
तीनों की तीनों अवस्थाए real नहीं है. एक जाती है तो दूसरी आती है. जागृति से स्वप्न, स्वप्न से सुषुप्ति में  एक बात कॉमन रहती है – देखने वाला. जो अवस्थाओं के बदलने पर नहीं बदलता. क्यूंकि मैं ही जागृत अवस्था में इस संसार को देखता हूँ, मैं ही स्वप्न अवस्था में स्वप्न देख रहा होता हूँ और मैं ही सुषुप्ति अवस्था को अनुभव कर रहा होता हूँ. लेकिन यह तीनों की तीनों अवस्थाएं शरीर से होकर गुजरती है. तीनो का एक्सपीरियंस मैं शरीर में होकर ही करता हूँ.

एक और अवस्था का जिक्र वेदांत में आता है जिसे चतुर्थी का नाम दिया गया है, चतुर्थी यानि चोथी अवस्था जिसे तुरिया अवस्था भी कहा गया है. जो Pure Self की अवस्था है. जब मैं तीनों अवस्थाओ को शरीर से देखना छोड़ अपनी वास्तविक अवस्था में आ जाता हूँ तो उसे तुरिया अवस्था कहते है. बात समझने की है नाम कोई भी हो सकता है अपने अपने धर्म के अनुसार.

तो इन तीन अवस्थाओं से हम रोज़ गुजर रहे है, हर रोज़

Monday, 19 March 2018

क्यां आपको बातें भूलने की बीमारी है..




आज यह बहुत ही कॉमन बात हो गयी है कि हम बहुत सी बाते भूल जाते है. और यह भूलने की  बीमारी कई बार हमें बहुत नुकसान भी पंहुचा जाती है. अपने जीवन को हमें ही मैनेज करना है और उसके लिए बहुत सी जरुरी बातो को याद रखना जरुरी होता है.
हम अपनी कही हुई बाते भूल जाते है. स्टूडेंट्स के लिए तो यह बहुत ही बड़ी समस्या है कि वो याद किया हुआ भूल जाते है. और जब एग्जाम का वक़्त आता है तो बहुत सी पढ़ी हुई बाते भी याद नहीं आती. तब बहुत ही दुःख होता है कि पढ़ा भी था पर याद ही नहीं आया तो फिर फायदा क्या हुआ.
ऐसा ही ऑफिस में, या बिज़नस में, या घर में या जीवन के किसी भी आयाम में यह भूलने की आदत बहुत ही तकलीफ देती है. मैं आपको इससे निजात पाने के लिए बहुत ही साधारण सा तरीका बताउगा जोकि इतना कारगार है कि उसके रिजल्ट्स देख कर एक बार आप खुद हैरान हो जायेंगे.
बस एक छोटा सा प्रयोग रोज़ करना है.
रात को सोने से पहले – आपको दिन भर में हुई सभी बातो को सिलसिलेवार याद करना है. कि सुबह उठे तो सबसे पहले आपने क्यां किया, फिर उसके बाद क्यां किया, नाश्ते में क्यां खाया, जब घर से बाहर निकले तो सबसे पहले किसे मिले उससे क्या बात की थी.
जब आप सुबह घर से निकले तो आप उस वक़्त क्या सोच रहे थे, सुबह से दोपहर तक आपको कौन कौन मिला. किसने कौन कौन से कपडे पहन रखे थे. आज कितनी बार भूख लगी और आपने क्यां क्यां खाया. आज कितनी बार पानी पिया.
आज किसने आपकी तारीफ़ की और किसकी आपने तारीफ़ की. बीच बीच में मन भागेगा पर उसे फिर पकड़ कर लाना है और इस आत्मावलोकन पर लगा देना है. हर वो बात बस देखने कि कौशिश करनी है आज घटित हुई है. बस देखना है किसी भी बात में उलझना नहीं है. बस एक के बाद एक घटना को सोचते जाना है.
और लास्ट में जब नींद आने लगे आज की जो सबसे अच्छी बात रही उसके बारे में सोचते हुए सो जाना है.
बस इतना ही करना है. डेली करना है. ऐसा करते हुए शुरू में बहुत ही प्रॉब्लम होगी. मन भागेगा, बार बार भागेगा पर आपको मन को बार बार पकड़ कर लाना है.
बस डेली इतना करने से ही आपकी मेमोरी अपने आप ही बढ़ने लगेगी. थोड़े दिनों में ही आप देखेगे कि अपने आप ही आपको लगभग सारी जरुरी बाते आपको याद रहने लगी है और आप जीवन को बहुत ही अच्छे ढंग से मैनेज करने लगे है.



Saturday, 17 March 2018

ऐसा करने से आपकी मृत्यु कभी एक्सीडेंट से नहीं होगी


इच्छा मृत्यु 



श्वेताश्वतर उपनिषद में एक श्लोक आता है –

लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरसौष्ठवं च।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति।। 2.1.13।।

जिसका हिंदी में आशय है कि –
ध्यानयोगका साधन करते करते जब पृथ्वी, जल,  तेज, वायु और आकाश -- इन पाँच महाभूतोंका उत्थान हो जाता है? अर्थात् जब साधकका इन पाँचों महाभूतोंपर अधिकार हो जाता है और इन पाँचों महाभूतोंसे सम्बन्ध रखनेवाली योगविषयक पाँचों सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं? उस समय योगाग्निमय शरीरको प्राप्त कर लेनेवाले उस योगी के शरीरमें न तो रोग होता है? न बुढ़ापा आता है और न उसकी मृत्यु ही होती है। अभिप्राय यह कि उसकी इच्छाके बिना उसका शरीर नष्ट नहीं हो सकता.

बड़ी कमाल की बात इसमें कही गयी है कि इच्छा मृत्यु, रोग मुक्ति, बुढ़ापा न आना, हमेशा जवान रहना, पांच सिद्धियाँ, पांच महाभूतो पर अधिकार. सब की  सब बाते कमाल की है.

मानव जाति चाहे कही की भी हो, किसी भी समय की हो – पर रोगों पर विजय पाने के लिए और मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए हमेशा लालायित रही है और रहेगी भी. हिन्दुस्तान की धरती पर ऐसे बहुत से संत हुए जिन्होंने अपनी मौत से पहले ही बता दिया कि वो फलां तारीख़ को फलां समय इस दुनिया को छोड़ देंगे.

आपने हिरण्यकशिपु का नाम तो सुना होगा, पुराणों में उनकी कथा आती है. हिरण्यकशिपु एक असुर था जिसकी कथा पुराणों में आती है. उसका वध नृसिंह अवतारी विष्णु द्वारा किया गया. यह हिरण्यकरण वन नामक नामक स्थान का राजा था जोकि वर्तमान में भारत देश के राजस्थान राज्य में स्थित है जिसे हिण्डौन के नाम से जाना जाता है.

हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसक प्राणों को कोई डर रहेगा।

आप यह देख रहे है कि यहाँ पर वही बात आ रही है जो वेदांत में आती है कि अगर पांच महाभूतों को सिद्ध कर लिया तो इनमे से किसी के भी कारण से आपकी मृत्यु नहीं हो पायेगी. अगर आपने पृथ्वी तत्व पर विजय प्राप्त कर ली तो आपकी मृत्यु कभी भी एक्सीडेंट से नहीं होगी. यह बात बिलकुल सच है.  
पांच महाभूत है क्यां - पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश यह पांच महा भूत है. जिन्हें है पांच तत्व भी कहते है.

पांच सिद्धियाँ – सब कुछ पांच तत्वों से बना है और अगर यह पांचो के पांचो तत्वों पर यदि किसी का अधिकार हो जाता है तो वो दुनियां की किसी भी वस्तु को किसी भी वस्तु में बदल सकता है. ऐसे बहुत से योगी हुए है जिन्होंने ऐसा किया है. एक बार नहीं कई बार ऐसा किया है. साईं बाबा ने पानी से दिए बनाये है. बहुत सारे संतो ने पानी को घी में बदल दिया.

लेकिन मेरा उदेश्य चमत्कारों कि चर्चा करना बिलकुल नहीं है क्यूंकि चमत्कार केवल देखने के लिए होते है उनसे किसी का क्यां भला हो सकता  है. मेरा उदेश्य यह है कि आप निरोग रह कर अपनी जीवन यात्रा कर सके. ध्यान निरोगी करता है यह बात अन्य भारतीय ग्रंथो में भी आई है.

ध्यान आपको आपके अवचेतन मन में बसे संस्कारों तक पंहुचा देता है जिनकी वजह से आप बीमार होते है. जब इस तरीके से आप उन संस्कारो को समाप्त कर देते है तो वो बीमारी जिस से व्यक्ति जूझ रहा होता है वो भी गायब हो जाती है. बुढ़ापा भी एक बीमारी ही है. ऐसा ध्यान ने बहुत बार किया है बहुत बार.

मृत्यु अटल है,  आनी ही है. हिरण्यकशिपु हो या रावण या कोई भी मृत्यु तो आयी है. फिर संतो की बात करे जिन्हें ईच्छा मृत्यु प्राप्त थी. उन्होंने भी अपनी मर्ज़ी से मृत्यु को स्वीकार किया. वास्तव में  मृत्यु नाम की कोई चीज है भी नहीं. समाप्त किसी भी वस्तु को नहीं किया जा सकता फिर उर्जा को तो बिलकुल भी नहीं.

अब बात आती है कि करे क्यां? ध्यान में उतरना होगा तभी रोग मुक्ति होगी तभी मृत्यु से भी मुक्ति होगी. “मृत्यु से भी मुक्ति’’ -  का मतलब है कि मृत्यु को जान लेना. क्यूंकि अगर मृत्यु को जान लिया तो मृत्यु कि बात ही समाप्त हो जाएगी. मरना है यह टॉपिक भी नहीं रहेगा तो फिर डर कैसा.

ध्यान जितना अध्यात्म के लिए जरुरी है उतना आपके जीवन के लिए भी जरुरी है. रोज़मर्रा जिंदगी से हो नकारात्मक उर्जा उठती है उसे बैलेंस करने के लिए ध्यान कि ही आवश्यकता है.    
 



Friday, 16 March 2018

मुक्ति क्यां है


क्यां मैं मुक्त हूँ ?



जब मैंने होश संभाला और उसके बाद जब मैं धर्म विज्ञान से रूबरू हुआ तो एक शब्द बार बार मेरे सामने आता था वो था "मुक्ति"; यह शब्द "मुक्ति" मुझे बार बार मुझे इस बात का अहसास दिलाता था कि कही न कही कोई न कोई बंधन जरुर है जिससे मुझे आज़ाद होना है. पर वो बंधन क्यां था यह बात समझना बड़ा ही मुश्किल काम था. क्यूंकि मैं अपनी जिंदगी तो जी ही रहा था फिर किस बात का बंधन? मैं कही भी आ सकता था, कही भी जा सकता था, मेरी अपनी  पसंद थी,  नापसंद भी थी. मैं तो अपने आप को आज़ाद ही महसूस करता था. पर धर्म ग्रन्थ फिर किस से मुझे मुक्त होने की बात करते थे. कहते है कि धर्म जहाँ समाप्त होता है उस से भी काफी दूर आध्यात्मिकता शुरू होती है. क्यूंकि आध्यात्मिकता में एक लड़ाई होती है, मन से, खुद के मन से; यानि खुद से. पर यह लड़ाई तब शुरू हो सकती है जब हम समझ जाये की कोई है जिसके बंधन में हम है.  

मेरे चारो ओर की दुनियां में ख़ूबसूरती थी भी और बदसूरती भी थी. मेरे मन में बहुत सी बाते उठती रहती थी अच्छी भी और बुरी भी. मेरा मन मुझे चलाता रहता था. शायद ही वो कभी चुप होता हो. मुझे जैसे मेरा मन कहता मैं वैसे ही करता था. मैं बहुत सी पुस्तके पढता जो मेरे मन को भी अच्छी लगती थी. उन पुस्तकों में लिखी हुई बाते मेरे मन के द्वारा मुझे अच्छी तो लगती थी पर उन बातो को खुद पर लागु करू यह मुमकिन नहीं था. कई बार मुझे अपने ही मन में उठती हुई बाते बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी, मुझे कई बातो पर तो घृणा भी होती थी. कुछ बाते मैं चाह कर भी अपने ही मन से करवा नहीं पाता था. पर मन था मैं उसे चलने से तो रोक ही नहीं सकता था. तब शायद समय रहते मेरे मन में एक बात अपने आप ही आने लगी कि यह मन खुद के प्लान से तहत मुझे चला रहा है. और यही है जिसके शिकंजे में मैं जी रहा हूँ. मन बहुत सारे भाव मुझे देता था. उन भावों में ही मैं जी रहा था. मन ने कहा तो खुश और मन ने कहा तो दुखी. यही बंधन था, मेरा अपना मन, इस से निकलना ही मुक्ति थी. मैं समझता था कि इस से मुक्त होने का राज़ भी इसी में दबा है. मुझे इसे समझना भर है बस.

शरीर के साथ बहुत से सबंध जुड़े होते है और मन में उन सबंधो के टूटने का डर समाया रहता है.  इसके इलावा शरीर के बीमार होने का डर, मरने का डर भी हमेशा सताता रहता है. यह सब के सब डर मन में ही पैदा होते है, मन में ही पनपते है और कभी कभी मन में मर भी जाते है. मन मेरी सीमा थी और कमजोरी भी. जब तक मैं मन में था तो मैं उससे आगे या फिर उससे पार जाने की बात सोच ही नहीं सकता था. मन के सहारे पांच इन्द्रियों से मैं समझता समझाता हुआ शरीर के साथ आगे बढ़ रहा था. कभी कभी जब मैं मन से थोडा हट कर प्रकृति से रूबरू होता जैसे कि प्रकृति जनित सुंदर फूलों के देखता तो देखता ही रह जाता और एक जुडाव सा महसूस करता उस फूल से, उसकी खुशबू से और उसे बनाने वाले से. कभी कभी पहाड़ को, बारिश को, नदियों को, फूलों को, झरनों को, खुले मैदानों को एक तरह के खालीपन से देखना बहुत ही अच्छा लगता था. ऐसा लगता था कि मेरा जुडाव है इन सब से. फिर अचानक वो अनुभव खो जाता और मैं अपने आप को इस शरीर में ही मन के द्वारा कैद पाता. 

मुक्ति को मैं किताबो से, खाली धर्म से नहीं समझ सकता था. समझ आता था कि मन मेरा है मैं मन नहीं हूँ, शरीर मेरा है पर मैं शरीर नहीं हूँ. फिर मैं क्यां हूँ? जो भी हूँ पर न मन हूँ और न ही बॉडी. हा कभी कभी जब थोड़ी देर के लिए जब मन नहीं होता तो अचानक मुझे अपने होने का अहसास होता है. वो अहसास ही मुझे कुछ ओर होने का सिग्नल दे जाता है. पर फिर वही मन जिसमे मैं कैद हूँ मुझ पर काबिज़ हो जाता है. जो मुझे उतना ही सोचने देता था जितनी मेरी लिमिट थी. 

मन किसी न किसी तरह पांच इन्द्रियों के माध्यम से मुझे लुभाए रखता था कभी स्वाद, कभी अच्छा-बुरा लगना, कभी ख़ुशी, कभी गम, कभी खुशबू तो कभी अच्छा दृश्य तो फिर कभी अच्छा म्यूजिक, हर चीज के साथ अच्छा और बुरा जुड़ा हुआ था. मेरा मन मेरी हर ईच्छा को अच्छी तरह से समझता था, मेरी हर पसदं नापसंद को भी अच्छी तरह से जानता था. अपनी इसी शक्ति से वो मुझे बनाये रखता था. मैं भी बना रहना चाहता था शरीर के रूप में. शरीर के मरने के बाद क्या होगा यह मन कभी भी पता नहीं चलने दे सकता था यदि मन ऐसा कर देता तो जीवन के प्रति मेरा मोह ही ख़त्म हो जाता. और मैं मन से भी मुक्त हो जाता वो हो जाता जो मैं हूँ या जो मैं था. मन को समझने के लिए हर वक़्त अलर्ट रहना आवश्यक था, चेतन रहना, मन के कौनसा विचार उठा और क्यूँ उठा और कहा तक चला कर ले गया. 

हर विचार जन्म होता और फिर वो रहता और फिर वो ख़त्म भी हो जाता. यह सब मन में होता ही रहता था. केवल चेतन रह कर aware रह कर ही इस बात को समझा जा सकता था. ऐसा करने से ही यह समझ आ जाता था मैं मन नहीं हूँ, मैं शरीर नहीं  हूँ मैं कुछ और ही हूँ. मैं जो हूँ उस तक पहुचना ही मुक्ति होगा. खुद को खुद से अलग करना ही मुक्त होना था.