क्यां मैं मुक्त हूँ ?
जब
मैंने होश संभाला और उसके बाद जब मैं धर्म विज्ञान से रूबरू हुआ तो एक शब्द बार
बार मेरे सामने आता था वो था "मुक्ति"; यह शब्द "मुक्ति" मुझे
बार बार मुझे इस बात का अहसास दिलाता था कि कही न कही कोई न कोई बंधन जरुर है
जिससे मुझे आज़ाद होना है. पर वो बंधन क्यां था यह बात समझना बड़ा ही मुश्किल काम था.
क्यूंकि मैं अपनी जिंदगी तो जी ही रहा था फिर किस बात का बंधन? मैं कही भी आ सकता
था, कही भी जा सकता था, मेरी अपनी पसंद
थी, नापसंद भी थी. मैं तो अपने आप को आज़ाद
ही महसूस करता था. पर धर्म ग्रन्थ फिर किस से मुझे मुक्त होने की बात करते थे.
कहते है कि धर्म जहाँ समाप्त होता है उस से भी काफी दूर आध्यात्मिकता शुरू होती
है. क्यूंकि आध्यात्मिकता में एक लड़ाई होती है, मन से, खुद के मन से; यानि खुद से.
पर यह लड़ाई तब शुरू हो सकती है जब हम समझ जाये की कोई है जिसके बंधन में हम है.
मेरे
चारो ओर की दुनियां में ख़ूबसूरती थी भी और बदसूरती भी थी. मेरे मन में बहुत सी
बाते उठती रहती थी अच्छी भी और बुरी भी. मेरा मन मुझे चलाता रहता था. शायद ही वो
कभी चुप होता हो. मुझे जैसे मेरा मन कहता मैं वैसे ही करता था. मैं बहुत सी
पुस्तके पढता जो मेरे मन को भी अच्छी लगती थी. उन पुस्तकों में लिखी हुई बाते मेरे
मन के द्वारा मुझे अच्छी तो लगती थी पर उन बातो को खुद पर लागु करू यह मुमकिन नहीं
था. कई बार मुझे अपने ही मन में उठती हुई बाते बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी, मुझे कई
बातो पर तो घृणा भी होती थी. कुछ बाते मैं चाह कर भी अपने ही मन से करवा नहीं पाता
था. पर मन था मैं उसे चलने से तो रोक ही नहीं सकता था. तब शायद समय रहते मेरे मन
में एक बात अपने आप ही आने लगी कि यह मन खुद के प्लान से तहत मुझे चला रहा है. और
यही है जिसके शिकंजे में मैं जी रहा हूँ. मन बहुत सारे भाव मुझे देता था. उन भावों
में ही मैं जी रहा था. मन ने कहा तो खुश और मन ने कहा तो दुखी. यही बंधन था, मेरा
अपना मन, इस से निकलना ही मुक्ति थी. मैं समझता था कि इस से मुक्त होने का राज़ भी
इसी में दबा है. मुझे इसे समझना भर है बस.
शरीर
के साथ बहुत से सबंध जुड़े होते है और मन में उन सबंधो के टूटने का डर समाया रहता
है. इसके इलावा शरीर के बीमार होने का डर,
मरने का डर भी हमेशा सताता रहता है. यह सब के सब डर मन में ही पैदा होते है, मन
में ही पनपते है और कभी कभी मन में मर भी जाते है. मन मेरी सीमा थी और कमजोरी भी.
जब तक मैं मन में था तो मैं उससे आगे या फिर उससे पार जाने की बात सोच ही नहीं
सकता था. मन के सहारे पांच इन्द्रियों से मैं समझता समझाता हुआ शरीर के साथ आगे बढ़
रहा था. कभी कभी जब मैं मन से थोडा हट कर प्रकृति से रूबरू होता जैसे कि प्रकृति
जनित सुंदर फूलों के देखता तो देखता ही रह जाता और एक जुडाव सा महसूस करता उस फूल
से, उसकी खुशबू से और उसे बनाने वाले से. कभी कभी पहाड़ को, बारिश को, नदियों को,
फूलों को, झरनों को, खुले मैदानों को एक तरह के खालीपन से देखना बहुत ही अच्छा
लगता था. ऐसा लगता था कि मेरा जुडाव है इन सब से. फिर अचानक वो अनुभव खो जाता और
मैं अपने आप को इस शरीर में ही मन के द्वारा कैद पाता.
मुक्ति को मैं किताबो से,
खाली धर्म से नहीं समझ सकता था. समझ आता था कि मन मेरा है मैं मन नहीं हूँ, शरीर
मेरा है पर मैं शरीर नहीं हूँ. फिर मैं क्यां हूँ? जो भी हूँ पर न मन हूँ और न ही
बॉडी. हा कभी कभी जब थोड़ी देर के लिए जब मन नहीं होता तो अचानक मुझे अपने होने का
अहसास होता है. वो अहसास ही मुझे कुछ ओर होने का सिग्नल दे जाता है. पर फिर वही मन
जिसमे मैं कैद हूँ मुझ पर काबिज़ हो जाता है. जो मुझे उतना ही सोचने देता था जितनी
मेरी लिमिट थी.
मन किसी न किसी तरह पांच इन्द्रियों के माध्यम से मुझे लुभाए रखता
था कभी स्वाद, कभी अच्छा-बुरा लगना, कभी ख़ुशी, कभी गम, कभी खुशबू तो कभी अच्छा
दृश्य तो फिर कभी अच्छा म्यूजिक, हर चीज के साथ अच्छा और बुरा जुड़ा हुआ था. मेरा
मन मेरी हर ईच्छा को अच्छी तरह से समझता था, मेरी हर पसदं नापसंद को भी अच्छी तरह
से जानता था. अपनी इसी शक्ति से वो मुझे बनाये रखता था. मैं भी बना रहना चाहता था
शरीर के रूप में. शरीर के मरने के बाद क्या होगा यह मन कभी भी पता नहीं चलने दे
सकता था यदि मन ऐसा कर देता तो जीवन के प्रति मेरा मोह ही ख़त्म हो जाता. और मैं मन
से भी मुक्त हो जाता वो हो जाता जो मैं हूँ या जो मैं था. मन को समझने के लिए हर
वक़्त अलर्ट रहना आवश्यक था, चेतन रहना, मन के कौनसा विचार उठा और क्यूँ उठा और कहा
तक चला कर ले गया.
हर विचार जन्म होता और फिर वो रहता और फिर वो ख़त्म भी हो जाता.
यह सब मन में होता ही रहता था. केवल चेतन रह कर aware रह कर ही इस बात को समझा जा
सकता था. ऐसा करने से ही यह समझ आ जाता था मैं मन नहीं हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ मैं कुछ और ही हूँ. मैं जो हूँ उस तक
पहुचना ही मुक्ति होगा. खुद को खुद से अलग करना ही मुक्त होना था.
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