श्रीमद्भगवद्गीता की नज़र से हम सांख्ययोग को समझेगें. इस बात को शुरू
करने से पहले मैं आपको कुछ बाते बताना चाहता हूँ.
योग क्यां है?
पुरुष क्यां है?
प्रकृति क्यां है?
कर्मयोग क्यां है?
प्रकृति के तीन गुण क्यां है?
ईश्वर से या खुद के वास्तविक स्वरुप को समझना और जानना और खुद को
उससे जोड़ देना ही योग है.
पुरुष वो है जो इन्द्रियों के माध्यम से प्रकृति में उपलब्ध पदार्थो
को भोगता है.
इन्द्रियां – नेत्र, नाक, जीभ, कान, स्पर्श (त्वचा) और इनके जो विषय
है – रूप-रंग, गंध, स्वाद, श्रवण और स्पर्श.
प्रकृति क्यां है – हमारे चारो और का वातावरण जिसमे पदार्थ है, गुण
है और यह ऐसी ताक़त है जो हमारे मन से जुड़ कर बहुत से खेल खेलती है. इसके पास तीन
गुण है – सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण
इन्द्रियां प्रकृति में उपलब्ध विषय वस्तु हमारे मन के सामने प्रस्तुत
करती है और हमारा मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वो तत्क्षण ग्रहण होने लग जाता
है और मन उस इन्द्रिय की विषय वस्तु के साथ आसक्ति पैदा करता है. मन बुद्धि को काबू
में करता है और बुद्धि फिर आत्मा को यानि हमारे होने को एक तरीके से हर लेती है.
अब बात आती है की कर्मयोग क्यां है?
हमारे द्वारा किया गया कोई भी कार्य कर्म कहलाता है. हमारे हर कर्म
को प्रकृति हर वक़्त ग्रहण कर रही है और वो उस कर्म के गुण के हिसाब से उसका फल
हमें देती है. यानि यह प्रकृति का कार्य है फल देना.
आज विज्ञानं और आज के मॉडर्न साइकोलोजिस्ट, लेखक भी यही कहते है कि
जब भी आप कोई ईच्छा करते हो तो यह सारा का सारा यूनिवर्स उसे फलित करने के लिए लग
जाता है.
हम यदि आसक्ति के साथ कर्म करेगे तो फल मिलेगा ही यह नियम है प्रकृति
का. बुरे कर्म का फल बुरा और अच्छे कर्म का फल अच्छा. यह नियम है प्रकृति का.
जन्म दर जन्म यह सिलसिला चलता रहेगा. और यह सिस्टम इस तरह का है कि
हम इस प्रकृति में रहते हुए बिना कर्म के रह ही नहीं सकते यानि कर्म तो हमें करना
ही पड़ेगा. अब कर्म करना पड़ेगा तो फल भी प्रकृति देगी ही क्यूंकि यह भी नियम है. इस
तरह तो हम कभी निकल ही नहीं पाएंगे. कभी भी नहीं.
चिन्तन-मनन करने वाले ऋषियों ने चिन्तन किया मनन किया इस सिस्टम को
समझा और एक बात उसमे पाई कि अगर कर्म होगा तो फल मिलेगा ही; पर फल उसे मिलता है जो
फल की ईच्छा करके कर्म करता है. यानि अगर कर्म को ही इस प्रकृति को समर्पित कर
दिया जाये या ईश्वर को समर्पित कर दिया जाये तो फल ईश्वर को या फिर प्रकृति को ही
मिलेगा. इस तरह से हम कर्मफल से बच सकते है और जन्म-मृत्यु के चक्र से निकल कर अपने
वास्तविक स्वरुप को प्राप्त हो सकते है. इसी तरीके को कर्मयोग कहा गया है कि हम जो
भी कर्म करे वो कर्म ही ईश्वर को समर्पित कर दे.
यही श्री कृष्ण ने श्रीमदभगवद्गीता में अर्जुन से कहा कि - तेरा कर्म
करने में अधिकार है उसके फलो में कभी नहीं. इसलिए तो सभी कर्मो को मुझ ईश्वर में समर्पित
करता हुआ युद्ध कर इस प्रकार से युद्ध करता हुआ भी तू पाप और पुण्य न प्राप्त होकर
मुझ परमेश्वर को ही प्राप्त होगा.
अब हमारा विषय है सांख्ययोग. कर्म योग तो हो गया कि अपने सभी कर्मो
को ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करना. इसमें कोई भी कर्म करते हुए बस ईश्वर को
याद रखना होता है. यानि निरंतर चिंतन. निरंतन चिंतन का मतलब होता है कि बिना किसी
और सोच के एकमात्र ईश्वर का ही चिंतन करना.
श्रीमदभगवद्गीता में एक शलोक आता है – अध्याय 3 श्लोक 5
निसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये
नहीं रहता; क्यूंकि सारा मनुष्यसमुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म
करने के लिए बाध्य किया जाता है.
यानि हम कर्म नहीं करेंगे तो भी प्रकृति हमसे अपने आप ही करवा लेगी.
फिर एक श्लोक आता है कि - अध्याय 3 श्लोक 33
सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते है अथार्त अपने स्वभाव के परवश हुए
कर्म करते है. ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है. फिर इसमें किसी
का हठ क्या करेगा.
फिर गीता के अंत में 18वें अध्याय के श्लोक 49 कुल श्लोक 78 है
जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करुगा’
तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है; क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा
देगा.
हमारे चित में जो संस्कार या Mental
Patterns पड़े हुए है उन्ही से हम डायरेक्शन लेते है और प्रकृति भी उन्ही के
अनुसार अपने आप ही हमें चलाती है.
अब बात यह हुई कि – हमारे में चित में संस्कार पड़े हुए है जो हमारे
पूर्व कर्मो से संचित हुए है. हम अपने Subconscious mind से अपने आप ही उन Mental Patterns के अनुसार अपने जीवन वो वो सब कुछ करते है जो
हमारे चित में दर्ज है. क्यूंकि प्रकृति अपने आप ही वैसा करवाती है.
अब चित में Mental
Patterns है प्रकृति में उन्हें पूरा करवाने की क्षमता है. हम चाहे या न चाहे
तो भी प्रकृति करवा ही लेगी. अब अगर हम स्वयं को निकाल ले तो भी तो यह प्रोसेस
होगा ही. स्वयं को निकलने का मतलब है की हम बस साक्षी रहे कि किस तरह से मेरे ही
चित से Mental Patterns Observe करके
प्रकृति अपने तीन गुणों द्वारा Materialize कर रही है, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ. कोई भी
ईच्छा नहीं, कोई भी प्रयास नहीं कुछ भी करने में. बस मैं देख रहा हूँ और प्रकृति
कर रही है. अब तरह से आप संचित कर्मो को neutralize होते देख रहे
है, just watching, कोई भी नया कर्म नही कर रहे है – बस इसे ही सम्ख्यायोग कहते है.
मैं कुछ नहीं करता प्रकृति कर रही है अपने गुणों के द्वारा और
प्रकृति ही करवा रही है – सांख्ययोग कहलाता है.
अब कर्म होगा ही नहीं और न फल मिलेगा. कोई ईच्छा नहीं होगी, कोई लगाव
नहीं होगा. न ही कर्मयोग की तरह ईश्वर को कर्म अर्पण होंगे. कुछ भी नहीं बस देखना
है लिप्त तो होना ही नहीं है. सांख्ययोग हो जायेगा.
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